Saturday, December 29, 2012

अब कोई सोच शेष नहीं....


16 तारीख से आते-जाते हर लड़की में उस लड़की का चेहरा तलाशती थी...सामने से गुजरने वाले हर आदमी में उन छह आरोपियों को खोजती थी...रास्‍ते में भीख मांगती छोटी बच्‍चियों की उम्र का आकलन किया करती थी...पर आज से सारी तस्‍वीरें स्‍याह हो गईं।
 दिन की थकान भले रात में सोने पर मजबूर कर देती हो पर जागती आंखे हर समय उसके लिए कुछ तलाशती कुछ बुनती रहती थीं...। कैसे उसने अपने दोस्‍त के साथ पिक्‍चर देखने की प्‍लानिंग की होगी, कैसे दोनों ने तय किया होगा कि यही पिक्‍चर देखेंगे, कहां बैठे होंगे..क्‍या खाया होगा...कैसी लगी होगी उन्‍हें वो फिल्‍म...कितने खुश रहे होंगे...। घर लौटकर यह काम करना है..फलां काम निपटाना है..मां को देरी का यह कारण बताना है और न जाने क्‍या-क्‍या...।
 फिर ऑटो में बैठे होंगे..फिल्‍म के अच्‍छे-बुरे पहलू पर बातें की होगीं...और जल्‍दी घर जाने की हड़बड़ी होगी....। उस काली रात में दूर से आती सफेद बस को देखकर राहत की सांस ली होगी...पर इस बात से अनजान कि दूर से आती यह रौशनी जिंदगी को अंधेरे में भर देगी। इस बात से अनजान की इसमें सवार होते ही सबकुछ हमेशा के लिए बदल जाएगा...। एक छोटा सा कदम जिंदगी का अंतिम कदम बन जाएगा..।
लड़की के साथ क्‍या हुआ और लड़के के साथ क्‍या हुआ सभी को पता है..पर सोचिए जरा जब उस लड़की ने अस्‍पताल के उस बिस्‍तर पर आंखें खोली होंगी...कैसा महसूस किया होगा। उस लड़के के बारे में जो जिंदगीभर चाहकर भी खुद को इस घिनौनी सच्‍चाई से दूर नहीं कर पाएगा कि जिस दोस्‍त को के साथ वह खुशी-खुशी लौट रहा था,उसने उसकी चीखें सुनी, उस पर हुए अत्‍याचार को देखा। 
     इतने के बावजूद वो जीना चाहती थी...। 
उसकी मौत से पहले ही कई लोगों को दुआ करते सुना था कि उसे मर जाना चाहिए..जी नहीं सकेगी बच भी गई तो। एक तो शरीर साथ नहीं देगा ऊपर से समाज उसे जलील करने से बाज नहीं आएगा। क्‍या ये बात उसे नहीं पता थी....जरूर रही होगी...पर फिर भी वो जीना चाहती थी, खाना चाहती थी...बात करना चाहती थी...जिन सपनों को बुना होगा उन्‍हें पूरा करना चाहती थी। हर रोज कुछ नई बातें सोचती होगी...कॉलेज जाने पर ऐसे सामना करूंगी...किसी को एहसास नहीं होने दूंगी कि मैं ही हूं वो लड़की...कुछ बनकर दिखाउंगी और न जाने क्‍या-क्‍या। आंखें खोलते ही उसने अपने दोस्‍त के बारे में पूछा...कितना प्‍यार होगा उस रिश्‍ते में। जो असहनीय दर्द की उस घड़ी में भी उसे अपने दोस्‍त से तोड़ नहीं सका। 
पर  अब कोई सोच नहीं है....और रही बात कानून की तो यह भी हम सभी को पता है कि अगर  कल को  फांसी होगी भी तो अगले ही दिन एक और गैंगरेप होगा...अगले दिन क्‍या शायद उसी समय कहीं कोई लड़की किसी की हैवानियत का शिकार बन रही होगी। 
केवल कानून काफी है क्‍या...आज देश का हर पुरुष उन बलात्‍कारियों को गाली दे रहा है..लड़की के लिए अफसोस जता रहा है...पर वो बलात्‍कारी भी तो इन्‍हीं में से थे...है ना...?
  समाज इतना डरावना हो गया है कि घर से निकलते समय घर वालों की सांस टंग जाती है...दिन में हर घंटे फोन...मैसेज...।
 अगर यही दशा रही तो कहीं ऐसा न हो कि लड़की अपने पिता, पति, भाई और बेटे के अलावा किसी को इंसान मानना भी छोड़ दे ...वैसे अब रिश्‍तों का भी मोल कहां रह गया है.. 
खुद सोचिए, क्‍या अब भी सिर्फ कानून ही सबकुछ बदल देगा...शायद नहीं। अपने बच्‍चों को चाहे वह बेटा हो या बेटी, इंसान बनाने का समय है....यही एक अंतिम रास्‍ता है जो हमें इस डर से आजाद करा सकेगा।

8 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बहुत दर्द है आपकी बदकुचनी में। :(

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

आपकी बात का मान रखने का दिल तो करता है, पर मेरा डर ये है, कि कहीं हम पशुओं से भी आगे न निकल जायें जहाँ कोख और रक्त के संम्बध भी माईने खो देते हैं!

सुन्दर पोस्ट सच्चाई से लिखि गयी!
साधुवाद!

अभिषेक मिश्र said...

सही कहा है आपने। असामाजिक तत्वो के लिए कानून का डर जरूरी मगर पारिवारिक स्तर पर भी संस्कारों की पहल होनी चाहिए।

Yashwant R. B. Mathur said...


दिनांक 31/12/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!

Aditi Poonam said...

आपके विचारों से सहमत हूँ --संस्कार तो घर से ही मिलते हैं ,एक स्त्री को चाहे वह कोई भी होसम्मान मिलना ही चाहिए ,यह बात घुट्टी में घिस कर पिलानी होगी


Aditi Poonam said...

आपके विचारों से १००प्रतिशत सहमत हूँ

Rohitas Ghorela said...

अपने बच्चों को चाहे वह बेटा हो या बेटी इन्शान बनाने का वक्त आ गया है ... बहुत सही व सटीक बात कही।

यहाँ पर आपका इंतजार रहेगा : शहरे-हवस

Anju (Anu) Chaudhary said...

बेहद संजीदा सोच ...बेहद सटीक लेख

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