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Sunday, May 08, 2016

माई मरे...मौसी जि‍यावे

पूर्वांचल में एक कहावत है, माई मरे मौसी जि‍यावे. मतलब जि‍सकी मां मर गई हो, उसकी मौसी उसके लि‍ए यशोदा मइया बन जाती है.

पर आज मदर्स डे के मौके पर यूं ही बुआ से बात करते-करते बॉलीवुड की ऐसी ही एक मां और मौसी का जि‍क्र सामने आ गया. बॉलीवुड की एक ऐसी मां, जि‍सके बारे में बहुत कम लोग ही जानते होंगे. हालांकि‍ मौसी तो खासा लोकप्रि‍य हैं लेकि‍न इसे उनके अभि‍नय का कमाल कहें या फि‍र हमारी असंवेदनशीलता की उनका असली नाम बहुत कम ही लोगों को मालूम होगा.

लीला चि‍टणीस, अपने वक्‍त से दशकों आगे की सोच रखने वाली महि‍ला थीं. आप अंदाज़ा लगाइए 1909 में पैदा हुई एक लड़की, जि‍सका पहला पति‍ बेवफ़ा नि‍कल जाए, बीवी को छोड़कर बाहर कि‍सी और औरत से संबंध रखे, तो...उस समय में औरतों के लि‍ए कहा जाता था की वो पति‍ के घर डोली में जाती हैं और अर्थी पर बाहर आती हैं..लेकि‍न लीला ने पति‍ की बेवफ़ाई सहने के बजाय तलाक़ लेना पसंद कि‍या. दुर्भाग्‍य था की दूसरा पति‍ भी वैसा ही नि‍कला. लीला ने तीसरी शादी की और उसके बाद ज़ि‍न्‍दगीभर अपने बच्‍चों की ख़ाति‍र कैमरे के सामने डटी रहीं.

एक बहुत ही ज़रूरी बात, उस समय में अभि‍नय खलीहरों और अवारा लोगों का पेशा माना जाता था. जब लीला ने अभि‍नय शुरू कि‍या तो, बकायदा टाइम्‍स ऑफ इंडि‍या में इश्‍ति‍हार दि‍या गया की, इंडस्‍ट्री की पहली पढ़ी-लि‍खी, बी.ए. पास अभि‍नेत्री. खूबसूरती के मामले में भी उनका कोई सानी नहीं था. जि‍स लक्‍स साबुन को हम हीरोइनों के चेहरे से पहचानते हैं और जि‍सका वि‍ज्ञापन पाना हर हीरेइन का सपना होता है, उसकी पहली अंबेसडर लीला ही थीं. 

1941 में पहली बार वो इस ब्रांड का चेहरा बनीं. चार बच्‍चों की मां, 30 से ज्‍यादा की उम्र और बि‍ना कि‍सी बोटोक्‍स ट्रीटमेंट के वो नौजवानों के सपनों की रानी बन चुकी थीं. देवि‍का रानी तब तक पूरी तरह स्‍थापि‍त हो चुकी थीं लेकि‍न लीला ने आते ही उनकी कुर्सी को चुनौती दे दी. धुंआधार उनकी पहली फि‍ल्‍म रही और उन्‍होंने अभि‍नय को लेकर कई प्रयोग कि‍ए. वो जंटलमेन डाकू में डाकू भी  बनीं. उसके बाद उन्‍होंने मां के कि‍रदार नि‍भाने शुरू कि‍ए. उनकी लोकप्रि‍यता का अंदाज़ा लगाइए की 2003 में जब उनका नि‍धन  हुआ तो टाइम मैगज़ीन ने उन्‍हें मदर्स ऑफ मदर कहकर श्रद्धांजलि‍ दी. उन्‍होंने देवानंद, दीलि‍प कुमार और राजकपूर की मां की भूमि‍का नि‍भाई.



लेकि‍न जि‍न बच्‍चों के लि‍ए उन्‍होंने जि‍न्‍दगी का एक बड़ा हि‍स्‍सा मेक-अप करने और उतारने में बि‍ता दि‍या, उनकी आखि‍री घड़ी में उनका कोई बच्‍चा उनके घावों पर मरहम लगाने के लि‍ए भी मौजूद नहीं था. न अपनी औलाद पहुंची और न ही सि‍नेमाई...

और अब मौसी...

मौसी से एक ख़ास लगाव है...पढ़ने के बाद पता चला की वो गाज़ीपुर की थीं. वही गाज़ीपुर जहां बचपन बीता..दरअसल, बसंती की मौसी का असली नाम लीला मि‍श्रा था. 

बचपन का शौक़ कब जुनून बन गया और उसके बाद करि‍यर...ये कि‍सी को पता ही नहीं चला. पहली फि‍ल्‍म गंगावतरण रही. एक अच्‍छी अभि‍नेत्री होने के साथ ही मौसी को लोग उनके बेबाकपन के लि‍ए भी जानते थे और डरते भी थे. 

आज मदर्स डे पर बॉलीवुड की इस मां और मौसी को याद करते हुए..

साभार- बॉम्‍बे टॉकी

Saturday, May 07, 2016

अब सपनें ही तुम्हारा पता हैं...

अक्सर तितली का उड़ना,
चिडि़यों का चहचहाना
तुम्हारी याद दिला जाता है...
कई बार सोचती हूं, तुम होती
तो मेरे दिन की शुरूआत कैसे होती...
पहले तो तुम प्यार से उठाती...
पर तब भी जब मैं रज़ाई नहीं हटाती
तो तुम डांटती...
उस डांट का सारा मक़सद मुझे 
नाश्ता कराकर भेजना होता.
नहाने के बाद जैसे ही मैं तैयार हो जाती 
तुम नाश्ते के साथ लंच भी थमा देती
इस झिड़की के साथ की याद से खा लेना
आॅफिस के गेट पर पहुंचते ही तुम्हें न जाने 
कैसे पता चल जाता और मेरा मोबाइल बज उठता
दोपहर में स्कूल की घंटी की तरह
तुम भी मोबाइल की घंटी बजा देती, खाना खाया...
6 बजे के आॅफिस में अगर पांच मिनट भी अधिक होता
तो तुम मालिकान को बुरा-भला कहना शुरू कर देती
रास्ते में दो बार तो फोन जरूर करती
घर पहुंचते ही, तुम पुलिस सी बन जाती
स्ुबह से लेकर शाम तक तुम्हारी बेटी किससे मिली,
कैसे मिली, क्या किया सबकुछ पूछती...
खुद दिनभर काम करती रहती, पर मेरी थकान को 
चेहरे से ही पढ़ लेती...
हम साथ चाय पीते, गप्पे मारते और फिर "घर का पका" खाते
मैं तब भी सोने के लिए तुम्हारा ही हाथ खोजती
हां, पर मेरे सपनों में तुम कहीं नहीं होती....
और अब...
सपनें ही तुम्हारा पता बन चुके हैं...

Saturday, March 26, 2016

जिसने पापा का ममता भरा रूप देखा है...

लंच होते ही, वो सबसे कट जाती
दोस्त तो बहुत थे, सच्चे भी थे पर...
फिर भी एक कोने में ही लंच करती.
सबको लगता की वो अपना अच्छा खाना
किसी से बांटना नहीं चाहती...
पर वो अपने लंच से बहता तेल
किसी को दिखाना नहीं चाहती...
गोभी हो या फिर भिंडी, आलू हो या बैंगन
उसकी टिफि़न में सब एक ही शक्ल के दिखते
रोटी, सब्ज़ी के तेल से अधपकी पूड़ी हो जाती.
अक्सर कुछ आलू कच्चे ही रह जाते,
जो रोटी से दबाने के दौरान
फ़र्श पर छिटक जाते...
पर वो खाना अकेले ही खाती...
अक्सर, दूसरों का चाटा अचार मांग लाती
और अपनी रोटी का अंतिम नीवाला
स्वाद लेकर खाती...
पर वो लंच-बाॅक्स भी बेशकीमती था
पापा हर रोज़ कुछ ख़ास लंच बनाने की कोशिश करते
हर रोज़ एक नया एक्सपेरिमेंट करते...
जिस दिन लंच बाॅक्स खाली मिलता, वो जान जाते
फिर आने वाले चार-पांच दिन कुछ नया नहीं, वही बनाते
उस समय, सबके पास बहुत कुछ होता था दिखाने के लिए
पर आज मैं सबसे अमीर हूं...
मेरे पास पापा की वो यादें हैं, जो सौ में से एक के पास हो
मैं उन सैकड़ो में से एक हूं, जिसने पापा का ममता भरा रूप देखा है....

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