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Wednesday, June 01, 2016

बृहस्पतिवार की व्रत कथा

पूजा की आसनी पर बैठी, तो लगा की अम्मा पास ही बैठी है. सिर पर आंचल रखे, ख़ासतौर पर पीली साड़ी पहने, दोनों हाथों को पैर के बीच में जोड़े.

आज से करीब तीन साल पहले, वो दिल्ली रहने आई थी. उस वक्त बुआ की शादी नहीं हुई थी और हम मुखर्जी नगर के परमानंद इलाके में रहते थे. अम्मा आई तो अपने सारे ढेर सारे भगवान लेकर आई. जितने भगवान, उतनी ही आरती की किताबें, चालीसा, रोरी, चंदन, घी वाली बत्ती, अक्षत, किशमिश, चना, गुड़, काला तिल, गंगाजल और कुछ एक-दो और सामान...

एक छोटा सा नारंगी रंग का झोला था, जिसमें भगवान का ये सारा सामान भरा होता था. पूजा के सामान अम्मा सब कुछ सज देती और पूजा पूरी करने के बाद सबकुछ समेटकर झोले में डाल देती.

जब अम्मा आई तो उस समय तक घर में भगवान के लिए कोई जगह नहीं थी. अम्मा का कहना था, इतने बड़े घर में खुद रह रही हो और भगवान के लिए एक कोना भी नहीं है.

धीरे-धीरे अम्मा ने अतिक्रमण करके हमारी किताब वाली आलमारी का पहला खाना हथिया लिया और वो पूजा घर न सही पर पूजा-खाना बन गया.सारे भगवान थे. शायद मक्का की भी एक तस्वीर थी, बुआ को किसी ने दी होगी. वो तस्वीर भी स्वर्ण मंदिर के साथ उसी खाने में थी. अम्मा सबको चंदन लगा देती थी.

हर रोज़ हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती, गणेश चालीसा, गायत्री चालीसा और शिव चालीसा का पाठ करती थी. मज़ेदार बात ये थी की अम्मा पढ़ी-लिखी नहीं थी. लेकिन हम बच्चों के साथ रह-रहकर अक्षर जोड़कर पढ़ लेती थी. लेकिन चालीसा पढ़ने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती थी.

वो पन्ने पलटती थी लेकिन सिर्फ पलटने के लिए, वो सारे ग्रंथ, उसने सुन-सुनकर याद कर रखे थे. उस बार अम्मा करीब दो महीने रही. एक दिन ऐसे ही बात शुरू हुई तो अम्मा ने बृहस्पतिवार की कथा करने का प्रपोज़ल रख दिया. 

देव गुरू प्रसन्न होते हैं. विद्या और धन-धान्य से पूर्ण करते हैं...ना-ना प्रकार के किस्से सुनाए और हामी भरवा ली. तय हुआ की हर गुरूवार को कथा होगी. किताब पढ़ने की जि़म्मेदारी मेरी. 

गुरूवार का दिन आया. अम्मा को दुनिया की आधी बीमारियां थी लेकिन फिर भी अपने मरने के एक दिन पहले तक वो जितना हो सकता था, सारा काम करती रही. उस गुरूवार को अम्मा पांच बजे ही उठ गई. खुद उठी, पूजा का सारा सामान सजाया और उसके बाद मुझे नींद से जगाया. नेहा उठ...जो नहा ले...कहानी कहे के बा न. साबुन जिन लगइह...खाली पानी से नहा लिह...सरफ से कपड़ा मत धोइह...

इतनी सारी बातों को समझने के बाद नहाने गई. नहाकर निकली तो अम्मा बोली कौउनो पीर कपड़ा पहिर ल...उसके बाद हम पूजा करने बैठ गए.

अम्मा चुपचाप कहानी सुनती, बीच-बीच में कुछ -कुछ करती रहती. कभी दीया ठीक करती, कभी अक्षत हाथ में थमाती...कभी कुछ. कई बार कहानी पढ़ने में देर होने लगती तो मैं एक दो कहानियों का बंक मार देती लेकिन अम्मा को शक़ हो जाता. पूछती, आज उ लीलावती वाला कहनी ना कहलू ह का...और मैं तुरंत मुस्कुरा देती.

वो समझ जाती की मैंने गोला दिया है...बुआ साथ नहीं बैठती, पर कहानी सुनती रहती थीं. हर बार पूजा ख़त्म होने पर कहती, अम्मा रे, इ भगवान हउंव की कुछु और...हर बतिये पर शाप दे देवे न...

अम्मा को ये सब सुनना कभी अच्छा नहीं लगता और वो बोलती, चला इह कुल चलल आवत बा...तोहन लोगन के त कुछु मनही के ना ह...

आज खुद से ये पूजा की...अम्मा को याद करते हुए...आज अगर वो होती और मैं फोन पर उनको ये बताती तो वो कहती, चल...नीक कइलू, भगवान तोहके खूब खुस रखें...हमार बछिया के कौनो दुख मत देवें..

Wednesday, May 25, 2016

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी - 7

आज मेट्रो की भीड़ में एक बहुत अच्छी तस्वीर मिली.

अमूमन बच्चा संभालना, औरतों का काम माना जाता है. ये मौन घोषणा न जाने किसने कर रखी है की बच्चे की देखरेख, सू-सू-पाॅटी, दूध, नैपी, नहाला-धुलाना, मालिश और सुलाना, हर काम मां ही करेगी.

अपवाद बहुतेरे हैं लेकिन जहां तक सोच की बात है, ये जि़म्मेदारी मां की समझी जाती है. मां को थोड़ी राहत देने के लिए घर की दूसरी महिलाओं को नियुक्त किया जाता है लेकिन पिता को हमेशा से अंतिम विकल्प ही माना जाता रहा है.
पुराने समय में तो इस नियम के होने का कारण पता चलता है की औरतें केवल घर का काम देखती थीं और पुरूष बाहर का तो, बच्चे पालना मां का ही काम था. पर अब जबकि शहरों में इंजन के दोनों पहिए गाड़ी खींचने के लिए सुबह ही दौड़ पड़ते हैं तो, पिता की भी बराबर की भागीदारी तो बनती ही है.

ख़ैर मकसद ज्ञान देना बिल्कुल नहीं था. बस इस तस्वीर को देखकर जो महसूस किया वही लिखा. आज किस्मत से सीट मिल गई थी. न जाने क्यों मेट्रो थोड़ी खाली थी. मेरे ठीक सामने की सीट पर एक मां-बेटे बैठे थे और एक छोटा सा बच्चा.साल-दो साल का रहा होगा. समने बैठा शख़्स बमुश्किल 25 से 30 साल का होगा. या फिर उससे भी कम. लेकिन भरी मेट्रो में जहां लड़के, लड़कियों को इम्प्रेस करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं, वहां ये लड़का बच्चा संभाल रहा था.

बच्चे को पूरे दुलार से गोद में बिठाए हुए था. उसके बाद उन वृद्धा से दूध की बोतल मांगी और बच्चे को गोद में बिठाकर दूध पिलाने लगा. 

दूध पिलाने के दौरान उसने सबसे पहले बोतल को रूमाल से ढंका, जैसा आमतौर पर गांव-घर की औरतें करती हैं. बच्चे को खांसी आई तो उसका सिर सहलाया और उस पर फूंक मारी.

ये सब देखकर बहुत अच्छा लगा. सामने बैठे शख़्स को लेकर इज़्जत बढ़ गई की ये दिखावे से दूर है. उसे दुनिया की चकाचैंध और घुड़दौड़ में शामिल होने का शौक नहीं है. उसके लिए उसका परिवार ही सबकुछ है...

Sunday, May 08, 2016

माई मरे...मौसी जि‍यावे

पूर्वांचल में एक कहावत है, माई मरे मौसी जि‍यावे. मतलब जि‍सकी मां मर गई हो, उसकी मौसी उसके लि‍ए यशोदा मइया बन जाती है.

पर आज मदर्स डे के मौके पर यूं ही बुआ से बात करते-करते बॉलीवुड की ऐसी ही एक मां और मौसी का जि‍क्र सामने आ गया. बॉलीवुड की एक ऐसी मां, जि‍सके बारे में बहुत कम लोग ही जानते होंगे. हालांकि‍ मौसी तो खासा लोकप्रि‍य हैं लेकि‍न इसे उनके अभि‍नय का कमाल कहें या फि‍र हमारी असंवेदनशीलता की उनका असली नाम बहुत कम ही लोगों को मालूम होगा.

लीला चि‍टणीस, अपने वक्‍त से दशकों आगे की सोच रखने वाली महि‍ला थीं. आप अंदाज़ा लगाइए 1909 में पैदा हुई एक लड़की, जि‍सका पहला पति‍ बेवफ़ा नि‍कल जाए, बीवी को छोड़कर बाहर कि‍सी और औरत से संबंध रखे, तो...उस समय में औरतों के लि‍ए कहा जाता था की वो पति‍ के घर डोली में जाती हैं और अर्थी पर बाहर आती हैं..लेकि‍न लीला ने पति‍ की बेवफ़ाई सहने के बजाय तलाक़ लेना पसंद कि‍या. दुर्भाग्‍य था की दूसरा पति‍ भी वैसा ही नि‍कला. लीला ने तीसरी शादी की और उसके बाद ज़ि‍न्‍दगीभर अपने बच्‍चों की ख़ाति‍र कैमरे के सामने डटी रहीं.

एक बहुत ही ज़रूरी बात, उस समय में अभि‍नय खलीहरों और अवारा लोगों का पेशा माना जाता था. जब लीला ने अभि‍नय शुरू कि‍या तो, बकायदा टाइम्‍स ऑफ इंडि‍या में इश्‍ति‍हार दि‍या गया की, इंडस्‍ट्री की पहली पढ़ी-लि‍खी, बी.ए. पास अभि‍नेत्री. खूबसूरती के मामले में भी उनका कोई सानी नहीं था. जि‍स लक्‍स साबुन को हम हीरोइनों के चेहरे से पहचानते हैं और जि‍सका वि‍ज्ञापन पाना हर हीरेइन का सपना होता है, उसकी पहली अंबेसडर लीला ही थीं. 

1941 में पहली बार वो इस ब्रांड का चेहरा बनीं. चार बच्‍चों की मां, 30 से ज्‍यादा की उम्र और बि‍ना कि‍सी बोटोक्‍स ट्रीटमेंट के वो नौजवानों के सपनों की रानी बन चुकी थीं. देवि‍का रानी तब तक पूरी तरह स्‍थापि‍त हो चुकी थीं लेकि‍न लीला ने आते ही उनकी कुर्सी को चुनौती दे दी. धुंआधार उनकी पहली फि‍ल्‍म रही और उन्‍होंने अभि‍नय को लेकर कई प्रयोग कि‍ए. वो जंटलमेन डाकू में डाकू भी  बनीं. उसके बाद उन्‍होंने मां के कि‍रदार नि‍भाने शुरू कि‍ए. उनकी लोकप्रि‍यता का अंदाज़ा लगाइए की 2003 में जब उनका नि‍धन  हुआ तो टाइम मैगज़ीन ने उन्‍हें मदर्स ऑफ मदर कहकर श्रद्धांजलि‍ दी. उन्‍होंने देवानंद, दीलि‍प कुमार और राजकपूर की मां की भूमि‍का नि‍भाई.



लेकि‍न जि‍न बच्‍चों के लि‍ए उन्‍होंने जि‍न्‍दगी का एक बड़ा हि‍स्‍सा मेक-अप करने और उतारने में बि‍ता दि‍या, उनकी आखि‍री घड़ी में उनका कोई बच्‍चा उनके घावों पर मरहम लगाने के लि‍ए भी मौजूद नहीं था. न अपनी औलाद पहुंची और न ही सि‍नेमाई...

और अब मौसी...

मौसी से एक ख़ास लगाव है...पढ़ने के बाद पता चला की वो गाज़ीपुर की थीं. वही गाज़ीपुर जहां बचपन बीता..दरअसल, बसंती की मौसी का असली नाम लीला मि‍श्रा था. 

बचपन का शौक़ कब जुनून बन गया और उसके बाद करि‍यर...ये कि‍सी को पता ही नहीं चला. पहली फि‍ल्‍म गंगावतरण रही. एक अच्‍छी अभि‍नेत्री होने के साथ ही मौसी को लोग उनके बेबाकपन के लि‍ए भी जानते थे और डरते भी थे. 

आज मदर्स डे पर बॉलीवुड की इस मां और मौसी को याद करते हुए..

साभार- बॉम्‍बे टॉकी

Saturday, May 07, 2016

अब सपनें ही तुम्हारा पता हैं...

अक्सर तितली का उड़ना,
चिडि़यों का चहचहाना
तुम्हारी याद दिला जाता है...
कई बार सोचती हूं, तुम होती
तो मेरे दिन की शुरूआत कैसे होती...
पहले तो तुम प्यार से उठाती...
पर तब भी जब मैं रज़ाई नहीं हटाती
तो तुम डांटती...
उस डांट का सारा मक़सद मुझे 
नाश्ता कराकर भेजना होता.
नहाने के बाद जैसे ही मैं तैयार हो जाती 
तुम नाश्ते के साथ लंच भी थमा देती
इस झिड़की के साथ की याद से खा लेना
आॅफिस के गेट पर पहुंचते ही तुम्हें न जाने 
कैसे पता चल जाता और मेरा मोबाइल बज उठता
दोपहर में स्कूल की घंटी की तरह
तुम भी मोबाइल की घंटी बजा देती, खाना खाया...
6 बजे के आॅफिस में अगर पांच मिनट भी अधिक होता
तो तुम मालिकान को बुरा-भला कहना शुरू कर देती
रास्ते में दो बार तो फोन जरूर करती
घर पहुंचते ही, तुम पुलिस सी बन जाती
स्ुबह से लेकर शाम तक तुम्हारी बेटी किससे मिली,
कैसे मिली, क्या किया सबकुछ पूछती...
खुद दिनभर काम करती रहती, पर मेरी थकान को 
चेहरे से ही पढ़ लेती...
हम साथ चाय पीते, गप्पे मारते और फिर "घर का पका" खाते
मैं तब भी सोने के लिए तुम्हारा ही हाथ खोजती
हां, पर मेरे सपनों में तुम कहीं नहीं होती....
और अब...
सपनें ही तुम्हारा पता बन चुके हैं...

Wednesday, April 20, 2016

आज वो बि‍छड़ गया और घर सूना हो गया

कल दोनों के बीच जमकर लड़ाई हुई...ऐसा मुझे लगा. लड़ाई इस कदर थी की मुझे उठकर आना पड़ा और उन्‍हें डांट लगानी पड़ी.

डांटने के बाद एक उपर जाकर बैठ गई और एक नीचे. रात को मामला शांत कराया. पर आज की सुबह दोनों की आवाज़ गायब थी. वरना हर रोज़ दोनों सुबह साढ़े पांच चि‍ल्‍लाना शुरू कर देती थीं. इतना चि‍ल्‍लाती थीं की साथ के कमरे में सोने वालों की भी नींद हराम हो जाती थी और मुझे उन्‍हें दाना-पानी देकर चुप कराना पड़ता था.

पर आज कोई आवज़ नहीं थी...इसी धोखे में आंख भी नौ बजे खुली. हर रोज की तरह सबसे पहले उनके पास पहुंची...देखा तो एक जालि‍यों पर बैठा था और दूसरा उपर..पहला, दूसरे को रह-रहकर हि‍ला रहा था...पर दोनों शांत थे. दूसरा सि‍र लटकाए बैठा था. 

खाना खाने की कोशि‍श कर रहा था, पर सि‍र भी नहीं उठा पा रहा था.

काफी देर तक उसे नि‍हारती रही...वो नहीं उठा. उसे सूरज की रौशनी दि‍खाई, ये सोचकर की सूर्य के प्रताप से उसका सि‍र उठ जाए, पर ऐसा नहीं हुआ और मेरे देखते-देखते उसके पैर मुड़ गए, उसने सि‍र डैनों में छि‍पा लि‍या और हमेशा के लि‍ए सो गया.

उसे बाहर नि‍काला, उसने अपने पैरों को अपनी जगह से उस वक्‍त तक भी जमा रखा था. उसे बाहर नि‍काला, पेपर मे लपेटा और ज़मीन में हमेशा के लि‍ए सुला दि‍या. उसे वि‍दा करके लौटी तो दूसरे को देखकर ज्‍़यादा रोना आया...अकेला...तन्‍हा. आज उसके पास लड़ने के लि‍ए कोई नहीं था.

सोचा उसे बोल दूं की तुम भी चले जाओ...अकले रहकर क्‍या करोगे. आज़ाद कर दि‍या, घंटों बैठकर उसे दूर से ही नि‍हारती रही...पर वो गया ही नहीं. मेरी ओर देखा और चीखना शुरू कर दि‍या. लगा, इस दुनि‍या में मेरे अलावा उसका कोई नहीं...

आज मदर्स डे पर मेरा चुन्‍नू चला गया. लालकि‍ले से ले आई थी उन्‍हें... रोज़ का रूटीन बन गया था. मां की तरह उन्‍हें सुबह नहलाना-धुलाना दाना-पानी देना. फि‍र थोड़ी गपशप करना और ऑफि‍स चले जाना. घर लौटते ही दोनों चीखना शुरू कर देते थे. मानों दि‍न भर की रि‍पोर्ट दे रहे हों.


आज चुन्‍नू के जाने के बाद मैं और मुन्‍नू अकेले हैं. चाहकर भी मुन्‍नू के लि‍ए चुन्‍नू की जगह नहीं ले सकती. मुन्‍नू भी शांत है, उस चाव से न तो खाना खा रहा है और न ही पानी पी रहा है. बुलाने पर बोल रहा है पर वो उछाह नहीं है...

चुन्‍नू-मुन्‍नू मेरी दो प्‍यारी चि‍ड़ि‍या...जि‍नका जोड़ा आज बि‍छड़ गया और मेरा घर सूना हो गया. 


Monday, April 04, 2016

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी: 6

इस औरत को देखते ही विद्या बालन याद गईं और स्वच्छता अभियान के तहत चलाया गया वो विज्ञापन कानों में अपने-आप सुनाई देने लगा. जिसमें विद्या जी कहती हैं, जहां सोच, वहां शौचालय.

ख़ैर ये महिला, अपने सास-ससुर के साथ थी. तीनों को बदरपुर जाना था. पहले घुंघट थोड़ा कम था. ठोढ़ी दिख रही थी लेकिन जैसे ही मेट्रो अशोक नगर पहुंची, सास ने पूरा चेहरा ढक लेने को कहा. बहू ने झट उनकी आज्ञा का पालन करते हुए पूरा चेहरा ढक लिया और शीशे से लगकर बैठ गई.

उसके बाद सास-ससुर आपस में कुछ बात करने लगे. दोनों के बीच कुछ देर बात हुई और उसके बाद सास अपनी बहू को समझाने लगी. राजीव चैक पर बड़ी भीड़ आएगी, पहले ही दरवाजे़ के पास चल चलेंगे. वरना
निकल नहीं पाएंगे. बहू ने कोई जवाब नहीं दिया, उसके बाद सास ने उसे अपनी कोहनी से धक्का मारा...

कोहनी के धक्के से उसकी नींद खुली और वो थोड़ा संभलकर बैठ गई. सास ने कहा, मैं तब से बात किए जा रही हूं और तुम सो रही हो...घूंघट में मुंह डालकर सो रही हो...ये तो अच्छा है की घूंघट में मुंह छिपाकर सोए रहो और हम यहां देखते रहें की अगला स्टेशन कौन...

ऐसा करो, घूंघट बस सिर तक का करो, जब मुंह सबको दिखेगा तो नींद नहीं आएगी...बहू ने घूंघट छोटा किया और तिरछी होकर बाहर की ओर देखने लगी. 

Saturday, March 26, 2016

जिसने पापा का ममता भरा रूप देखा है...

लंच होते ही, वो सबसे कट जाती
दोस्त तो बहुत थे, सच्चे भी थे पर...
फिर भी एक कोने में ही लंच करती.
सबको लगता की वो अपना अच्छा खाना
किसी से बांटना नहीं चाहती...
पर वो अपने लंच से बहता तेल
किसी को दिखाना नहीं चाहती...
गोभी हो या फिर भिंडी, आलू हो या बैंगन
उसकी टिफि़न में सब एक ही शक्ल के दिखते
रोटी, सब्ज़ी के तेल से अधपकी पूड़ी हो जाती.
अक्सर कुछ आलू कच्चे ही रह जाते,
जो रोटी से दबाने के दौरान
फ़र्श पर छिटक जाते...
पर वो खाना अकेले ही खाती...
अक्सर, दूसरों का चाटा अचार मांग लाती
और अपनी रोटी का अंतिम नीवाला
स्वाद लेकर खाती...
पर वो लंच-बाॅक्स भी बेशकीमती था
पापा हर रोज़ कुछ ख़ास लंच बनाने की कोशिश करते
हर रोज़ एक नया एक्सपेरिमेंट करते...
जिस दिन लंच बाॅक्स खाली मिलता, वो जान जाते
फिर आने वाले चार-पांच दिन कुछ नया नहीं, वही बनाते
उस समय, सबके पास बहुत कुछ होता था दिखाने के लिए
पर आज मैं सबसे अमीर हूं...
मेरे पास पापा की वो यादें हैं, जो सौ में से एक के पास हो
मैं उन सैकड़ो में से एक हूं, जिसने पापा का ममता भरा रूप देखा है....

Monday, February 29, 2016

कहो ना प्यार है....और मैं


कल इरोज़ के नए ऐप पर फ्री में कहो ना प्यार है देखी...66वीं बार. आप चाहें तो मुझे दुनिया का सबसे खाली इंसान समझ सकते हैं. पर 66 में से 65 बार उस दौरान देखी, जब रितिक रौशन संग प्यार में थी. कल देखी, पुरानी और मासूम यादों को जि़दा करने के लिए.

याद नहीं उस समय कौन सी क्लास में थी पर कहो ना प्यार है, गाने ने दीवाना कर रखा था. छोटा शहर, न के बराबर संसाधन और ये पहला प्यार...पर ये प्यार क्रश वाला नहीं था. घर में कोई बड़ा भाई नहीं था, इसलिए हमेशा दिल करता था की रितिक रौशन मेरा भाई होता, तो कितना अच्दा होता.

पहली बार ये फिल्म बलिया के किसी सिनेमा हाॅल में देखी थी. गाज़ीपुर लौटी तो दीदी को इतना चढ़ाया की वो भी जि़द पर अड़ गई की उसे भी ये फिल्म देखनी है. ख़ैर किसी तरह मम्मी और पापा दोनों माने, पर जैसे ही हम घर से निकले बारिश होने लगी. पूरी तरह भीग चुके थे हम. मम्मी ने कहा, चलो कोई पिक्च्र-विक्चर नहीं देखनी, घर चलते हैं. मेरा दिल बैठ गया. मैंने कहा, अरे नहीं मम्मी, पापा टिकट ले चुके होंगे.

तब बुक माय शो तो हुआ नहीं करता था, इसलिए पापा पहले ही सिनेमा हाॅल चले गए थे ताकि टिकट मिल जाए. ख़ैर सिर से पांव तक भीगे हम सिनेमा हाॅल पहुंचे. पिक्चर बस शुरू ही हुई थी. 

घर आकर मैंने और दीदी ने घंटो फिल्म के बारे में बातें की. तब की बातें आज की बातों से बिल्कुल अलग थीं, जिसमें हमे हीरे-हीरोइन से लेकर विलेन और दूसरे कलाकार सभी बहुत पसंद आए थे. रोहित वाला रितिक ज़्यादा पसंद आया था. अमीषा का सूट पसंद आया था. चेहरे पर हाथ फेरने वाला सीन पसंद आया था. फाइट पसंद आई थी और कहो ना प्यार है का सिग्नेचर स्टेप पसंद आया था.

कुछ समय बाद ये गाना मेरा लकी गाना बन गया...सुबह-सवेरे आया करता था, डीडी पर. ये पूरा गाना सुने बिना स्कूल नहीं जाती थी. कोका कोला खरीदने पर रितिक की फोटो का कार्ड मिलता था...अब भी याद पूरे 45 थे मेरे पास. उन्हें दीवार पर चिपका दिया था. अख़बार से फोट काटकर दीवार पर चिपका दी थी और कुछ-एकबार उसे अगरबत्ती भी दिखाई थी.

इतना प्यार....फिर किसी अभिनेता से नहीं हुआ...अच्छा लगता है ये सब याद करके की...हम भी कभी बच्चे थे, कुछ भी करने में नफ़ा-नुकसान नहीं सोचा करते थे. किसी को ये साबित नहीं करना होता था की मैं समझदार हूं...बस वही करना होता था, करते थे जो दिल करता था. 

Monday, January 04, 2016

'कुछ' की भूख

आज अचानक ही मीरा को ये सब याद आ गया. वैसे इतना अचानक भी नहीं था. ऑफि‍स से लौटकर उसे कुछ खाने का दि‍ल कर रहा था. भूख नहीं लगी थी पर कुछ खाने का दि‍ल था. घर पर कुछ भी ऐसा नहीं था, जो वो तुरंत खा ले. बि‍ना पकाए. उसे बचपन के वो दि‍न याद आ गए, जब उसे 'कुछ' की भूख लगा करती थी. 
कुछ इंतज़ाम करने की जगह वो सालों पुराने उस एलबम को खोलकर बैठ गई. जि‍समें उसका वो हंसता-खेलता बचपन-परि‍वार आज भी बसा हुआ है. केवल तस्वीरों में, असलि‍यत में तो सब उसे छोड़ कर जा चुके हैं...वो भी एक साथ. अब न तो उसके पास जानकी है और न ही मम्मी और न पापा. सभी उसे छोड़कर जा चुके हैं.  


वो याद कर रही थी की कैसे बचपन में शाम होते ही उसे 'भूख-सी' लग आती थी...'भूख-सी' क्योंकि उस वक्त दाल-चावल, रोटी-सब्जी या पराठा-अचार खाने का मन नहीं करता था. मन करता था कुछ चटक-मटक खाया जाए. मसलन चिप्स, समोसा, टिक्की या फिर बाहर का कुछ... 
मम्मी को एक दिन के लिए तो मनाया जा सकता था, पर रोज़ तो संभव नहीं ही था.

शाम 4 बजते ही उसकी ये  भूख बढ़ जाती. कहने में उसे डर लगता था, तो मम्मी से सिर्फ इतना ही कहती की कुछ खाने को दे  दो. मम्मी पूछती 'कुछ' मतलब क्या खाना है, तो जवाब होता 'कुछ भी'... 
ये सवाल- जवाब का सिलसिला काफी देर तक चलता...मम्मी थोड़ी देर बाद झुंझला जातीं और कहती 'कुछ भी' मतलब मुझे नहीं पता, नाम बताओ. 
पर नाम बताना तो सीधे शेर के मुंह में हाथ डालने के बराबर होता...इसलिए मुंह बिचकाकर कहती 'कुछ भी' दे दो न...पता नहीं  मम्मी को कैसे, बिना कहे मालूम चल जाता था कि उसे खाने की नहीं जीभ के चटकारे की भूख है. उन्हें अंदाजा हो जाता था, पर वो भी आखिरी समय तक कोशिश करतीं की वो मान जाए और रोटी-पराठा टाइप या दूध पी ले. लेकिन सूजा हुआ थूथन देखकर उनकी आखिरी लाइन  यही होती, जाओ मुंह पिटाओ. 
उसके बाद तो घर में पटनी पर बिछे अख़बारों के नीचे हाथ डालकर सिक्का खोजने की देर होती, लगभग हमेशा ही एक-दो रूपए मिल जाते. नहीं मिलते तो वो मम्मी से ही होली पर बने पापड़ तलने का कह देती. पर त्याग की भावना से.  


एलबम देखते-देखते और इन पुराने ख़्यालों आज अचानक ही मीरा को ये सब याद आ गया. वैसे इतना अचानक भी नहीं था. ऑफि‍स से लौटकर उसे कुछ खाने का दि‍ल कर रहा था. भूख नहीं लगी थी पर कुछ खाने का दि‍ल था. घर पर कुछ भी ऐसा नहीं था, जो वो तुरंत खा ले. बि‍ना पकाए. उसे बचपन के वो दि‍न याद आ गए, जब उसे 'कुछ' की भूख लगा करती थी. 
कुछ इंतज़ाम करने की जगह वो सालों पुराने उस एलबम को खोलकर बैठ गई. जि‍समें उसका वो हंसता-खेलता बचपन-परि‍वार आज भी बसा हुआ है. केवल तस्वीरों में, असलि‍यत में तो सब उसे छोड़ कर जा चुके हैं...वो भी एक साथ. अब न तो उसके पास जानकी है और न ही मम्मी और न पापा. सभी उसे छोड़कर जा चुके हैं.  


वो याद कर रही थी की कैसे बचपन में शाम होते ही उसे 'भूख-सी' लग आती थी...'भूख-सी' क्योंकि उस वक्त दाल-चावल, रोटी-सब्जी या पराठा-अचार खाने का मन नहीं करता था. मन करता था कुछ चटक-मटक खाया जाए. मसलन चिप्स, समोसा, टिक्की या फिर बाहर का कुछ... 
मम्मी को एक दिन के लिए तो मनाया जा सकता था, पर रोज़ तो संभव नहीं ही था. शाम 4 बजते ही उसकी ये  भूख बढ़ जाती. कहने में उसे डर लगता था, तो मम्मी से सिर्फ इतना ही कहती की कुछ खाने को दे  दो. मम्मी पूछती 'कुछ' मतलब क्या खाना है, तो जवाब होता 'कुछ भी'... 
ये सवाल- जवाब का सिलसिला काफी देर तक चलता...मम्मी थोड़ी देर बाद झुंझला जातीं और कहती 'कुछ भी' मतलब मुझे नहीं पता, नाम बताओ. 
पर नाम बताना तो सीधे शेर के मुंह में हाथ डालने के बराबर होता...इसलिए मुंह बिचकाकर कहती 'कुछ भी' दे दो न...पता नहीं  मम्मी को कैसे, बिना कहे मालूम चल जाता था कि उसे खाने की नहीं जीभ के चटकारे की भूख है.

उन्हें अंदाजा हो जाता था, पर वो भी आखिरी समय तक कोशिश करतीं की वो मान जाए और रोटी-पराठा टाइप या दूध पी ले. लेकिन सूजा हुआ थूथन देखकर उनकी आखिरी लाइन  यही होती, जाओ मुंह पिटाओ. 
उसके बाद तो घर में पटनी पर बिछे अख़बारों के नीचे हाथ डालकर सिक्का खोजने की देर होती, लगभग हमेशा ही एक-दो रूपए मिल जाते. नहीं मिलते तो वो मम्मी से ही होली पर बने पापड़ तलने का कह देती. पर त्याग की भावना से.  
एलबम देखते-देखते और इन पुराने ख़्यालों को चुनते-बुनते काफी वक्त बीच चुका था. मीरा की नज़र दीवार पर टंगी घड़ी पर पड़ी, रात के दस बज चुके थे. पूरे तीन घंटे वो उस एलबम को सामने रखकर रोती रही थी और उसे एहसास भी नहीं हुआ था.    


एलबम गीला हो चुका था और उसकी भूख मर चुकी थी... 
एक अच्छी कंपनी में काम करने वाली मीरा अपने घर में अकेले रहती है...हाथ में महंगा मोबाइल, हाथ की लकीरों की तरह हमेशा चि‍पका रहता है...उस रात भी चाहती तो कि‍सी जगह से कुछ ऑर्डर कर सकती थी, पर उसने कुछ भी नहीं मंगाया. 
यादों ने पेट और मन दोनों भर दि‍ए थे और साथ ही वो अच्छी तरह जानती थी उसकी उस 'कुछ' वाली भूख को समझने वाला अब कोई नहीं है...  
उसने लगभग गीला हो चुका एलबम सि‍रहाने रखा और मोटी हो चुकी आंखों को ज़बरन मींचकर नींद आने का इंतज़ार करने लगी...  को चुनते-बुनते काफी वक्त बीच चुका था. मीरा की नज़र दीवार पर टंगी घड़ी पर पड़ी, रात के दस बज चुके थे. पूरे तीन घंटे वो उस एलबम को सामने रखकर रोती रही थी और उसे एहसास भी नहीं हुआ था.    


एलबम गीला हो चुका था और उसकी भूख मर चुकी थी... 
एक अच्छी कंपनी में काम करने वाली मीरा अपने घर में अकेले रहती है...हाथ में महंगा मोबाइल, हाथ की लकीरों की तरह हमेशा चि‍पका रहता है...उस रात भी चाहती तो कि‍सी जगह से कुछ ऑर्डर कर सकती थी, पर उसने कुछ भी नहीं मंगाया. 
यादों ने पेट और मन दोनों भर दि‍ए थे और साथ ही वो अच्छी तरह जानती थी उसकी उस 'कुछ' वाली भूख को समझने वाला अब कोई नहीं है...  
उसने लगभग गीला हो चुका एलबम सि‍रहाने रखा और मोटी हो चुकी आंखों को ज़बरन मींचकर नींद आने का इंतज़ार करने लगी... 

Saturday, May 09, 2015

पीकू, तुम इतनी देर से क्यों आई...?

कल पीकू देखी...

काॅन्स्टीपेशन, लूज़-मोशन...ऐसे शब्द जिनका हिंदी शब्द इस्तेमाल करने में भी हमें हिचक महसूस होती है, शुजीत सरकार ने उसे ही केंद्र बनाकर फिल्म बना डाली...एक ऐसी फिल्म जो आपको किसी एक मोशन में नहीं रखती है, बल्कि आपके भीतर पल रहे सैकड़ों इमोशन्स से आपको जोड़ती है.

फिल्म में बाप-बेटी के प्यार के ढेरों आयाम दिखाए गए हैं. पर निर्देशक ने बड़ी ही खूबसूरती से नारी सशक्तिकरण की बात को भी रख है.

मिस्टर भास्कर भटटाचार्य फिल्म में कम से कम दो-तीन बार कहते हैं, नहीं-नहीं उसको बोलने दो...इतना पढ़ी-लिखी औरत को बोलने से रोकना नहीं चाहिए. फ्रस्टेशन इस नाॅट गुड फाॅर मोशन...

एक ऐसी फिल्म जिसके इतने दिन बाद बनने का अफ़सोस कर रही हूं. सोच रही हूं की ये फिल्म पहले बन जाती और मैं देख पाती तो जि़न्दगी की उस भूल को सुधार लेती...

आज पछतावा हो रहा है...कुछ साल पहले तक, जब अम्मा यानी दादी जि़ंदा थीं तो उनसे इसी मोशन की बात पर कितनी बार लड़ाई हो जाती थी.

उस समय स्कूल में पढ़ा करती थी. मेरा कहना होता था की बाबा-अम्मा को तो घर पर ही रहना है वो बाद में भी वाॅशरूम जा सकते हैं...पर बाबा बागबान के अमिताभ बच्चन जैसे हैं. सर्दी हो या गर्मी बाबा सुबह 7 बजे तक नहा-धोकर तैयार हो जाते हैं. आज भी, 90 की उम्र पार करने के बाद भी.

स्कूल मेरा होता था पर मुझसे पहले बाबा ही तैयार हो जाते थे. लेकिन उनके वाॅशरूम से आने के बाद मैं कभी भी सीधे वाॅशरूम नहीं जाती थी. अम्मा को पकड़ कर ले आती और कहती, जाओ पहले वाॅशरूम देखो, साफ़ होगा तो ही मैं जाउंगी.

ये रोज़ का किस्सा होता था. अम्मा कुछ नहीं कहती थी और चुपचाप वाॅशरूम देखकर आ जाती और कहती, 'जा साफ ह...' 

इसके बाद मैं जाती...कल पीकू देखी तो कितनी ही पुरानी बातों पर पछतावा होने के साथ दुख हुआ. कितना परेशान किया मैंने. पर अम्मा ने कभी भी कुछ नहीं कहा...

घरवाले कहते हैं, जब मैं पैदा हुई थी तो मुझे दस्त लग गई थी. अम्मा ही उस वक्त मेरे पास थी और 24 घंटे मेरी सेवा में लगी रहती थी. बाबा के लिए मैं क्या हूं, ये सिर्फ वो और मैं जानती हूं. वो अक्सर कहते हैं, नेहा तुम पर बहुत भरोसा है. मेरे बाद सब देखना...इतना बहुत है, समझने के लिए की मैं उनका भरोसा हूं.

बाबा हर उस वक्त में मेरे साथ खड़े रहे, जब कोई नहीं था. एक बुजुर्ग कितना बड़ा सहारा होता है, ये अम्मा के जाने के बाद पता चल रहा है.

पीकू में जो कुछ दिखाया गया, वो कहीं न कहीं हम सभी के मन में अपने मां-पिता, दादी-बाबा के लिए होता है. पर अमिताभ का हर बात पर ओवर-रिएक्ट करना, अटेंशन चाहना और पीकू का सबकुछ इतने अच्छे से संभालना, ग्लानि से भर रहा है...बार-बार सोच रही हूं, मैंने उस वक्त ऐसा सब क्यों किया...

काश पीकू, तुम थोड़ा पहले आ जाती. जो चीज़े देखकर और जानकर भी मैं अनदेखा-अनसुना कर रही थी, तुमसे मिलकर शायद वो न करती...

Wednesday, May 06, 2015

सलमान आप मेरी उम्मीद हैं...हमेशा रहेंगे

सलमान मैंने आपकी कोई फिल्म थिएटर में नहीं देखी...मुझे लगता है की आपको एक्टिंग नहीं आती है. आपकी फिल्मों में कहानी नहीं होती है. बिना मतलब का डांस, रोमांस, मज़ाक और नौटंकी होती है. 

मैं उन्हें घर पर डाउनलोड करके देखना भी नहीं पसंद करती...बहुत पकाउ होती हैं, आपकी फिल्में...ऐसा मुझे लगता है. पर आप मुझे हीरो लगते हैं. एक हीरो जो, न तो शाहरूख जैसा रोमांस कर पाता है, न ही अमिताभ जैसा भाव ला पाता है, न उनके जैसा बोल पाता है, न ही रितिक और शाहिद सा डांस कर पाता है, न तो अक्षय जैसा रियल एक्शन कर पाता है और न ही अजय देवगन जैसे आंखों से कमाल कर पाता है.

पर आप मुझे बहुत पसंद हैं. इन सारे अभिनेताओं की फिल्में मैंने हाॅल में देखी हैं, पर आपकी नहीं. लेकिन इनमें से किसी को भी लेकर वो भरोसा कभी कायम नहीं कर सकी की, ये इसी दुनिया के प्राणी हैं और मैं कभी इनसे किसी तरह की मदद के लिए गुहार लगा सकती हूं.

कभी नहीं...पर आपको लेकर ये भरोसा कब और कैसे हुआ ये मुझे नहीं पता...सलमान आपके बारे में पढ़-पढ़कर और सुन-सुनकर ये जाना की आप दोस्तों के दोस्त और ज़रूरतमंदों के लिए उम्मीद भरा हाथ हैं. मैंने आपसे काॅन्टेक्ट करने के लिए कई तरह की वेबसाइट भी सर्च की थी पर कामयाबी नहीं मिली थी.

पर ये उम्मीद हमेशा रही और आज भी है की आपसे मदद मांगने के लिए केवल आपसे मिलने भर की देरी है, आप दिख जाएंगे तो मदद हो जाएगी.

13 साल पहले मैं बहुत छोटी थी. इतनी छोटी की अक्षर जोड़कर पढ़ती थी. आपके बारे में बस टीवी पर ही देखा था. तब आपको लेकर बहुत गुस्सा था और चाहती थी की आपको फांसी हो जाए. पर अब सोच बदल गई है. ये मानती हूं की साल चाहे जितने भी बीत जाएं गुनाह, गुनाह ही रहता है...पर अग़र ग़लती से ग़लती हुई है तो उसके लिए माफ़ी का प्रावधान होना चाहिए.

न्यायपालिका में मेरी पूरी श्रद्धा है. संभवतः इस राष्ट्र में वहीं एक तंत्र है, जिस पर आज भी एक आम इंसान भरोसा कर सकता है. पर इन 13 सालों में मैंने आपका बदलाव देखा है. बहुतों ने देखा हो शायद. इतने बदलाव की लोग आपको सलमान के बजाय भाई कहना पसंद करते हैं. भाई, इस रिश्ते की बहुत अहमियत है, हमारे देश में. 

आज जो फैसला आया, उससे दुखी हूं. जिन पीडि़तो का पक्ष रखकर आपके लिए सज़ा की मांग की गई है, उन्हें तो कुछ नहीं मिला...

सरकारी वकील का एक वीडियो देखा. अपील दायर करने वाली मोहतरमा को देखा...सबको देखकर यही लगा की ये केस एक नामचीन इंसान और नामचीन बनने की चाहत रखने वालों के बीच की लड़ाई भर बनकर ही रह गया था.

पीडि़तों की तो कहीं बात ही नहीं हो रही है. सरकारी वकील, बीएमडब्ल्यू, बचाव पक्ष बस यही सब रह गया है. ख़ैर इस देश में शराब पीकर हर रोज़ लाखों लोग गाड़ी चलाते हैं, एक्सीडेंट करते हैं और भाग जाते हैं...
पर आप 13 साल से न्यायपालिका के आदेशों के अनुसार चलते आए हैं...ये आपके उसी व्यवहार का हिस्सा है, जिसकी वजह से देश का एक बड़ा तबका दुखी है.

पांच साल की सज़ा है...बतौर अभिनेता ये लंबा समय है...संभवतः जब आप बाहर आएं तो कट्रीना और रणबीर की शादी हो चुकी हो. कुछ नए चेहरे आपको अपना आदर्श मानकर इंडस्ट्री में पांव जमाने की कोशिश कर रहे हों...लेकिन आप उस दिन भी भाई ही रहेंगे, क्योंकि फिल्में हिट होती हैं और पिटती भी हैं...पर आप भाई हैं...लाखों ऐसे होंगे जिनका आपसे बिन कहा एक रिश्ता हैं...वो उस वक्त भी आपके साथ ही होंगे...

Tuesday, May 05, 2015

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी 5

आॅफिस जाने की जल्दी में अगर कोई आॅटो रुकवाकर किसी से बात करने के लिए आतुर हो जाए, तो पक्की बात है की कुछ ख़ास होगा. प्रगति मैदान के बड़े वाले हनुमान जी से जैसे ही आॅटो ने टर्न लिया, दूर से बसपा का नीला झंडा दिखाई दिया.

मैं खुश...बसपा के झंडे को देखकर नहीं, बल्कि ये कयास लगाकर की हाथी देखने को मिलेगा. शुभ माना जाता है न...पर जैसे ही आॅटो मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन पहुंचा, असलियत कुछ और ही निकली. 


विकलांग वाली लोहे की साइकिल पर हर पार्टी का झंडा फहरा रहा था. भाजपा, बसपा, कांग्रेस, आप, समाजवादी पार्टी, कम्यूनिस्ट पार्टी और शायद एक-दो और...

सारे झंडे मिलकर छत्र जैसा काम कर रहे थे और बाबा के चारों ओर उनकी साइकिल पर हर प्रमुख हिंदू देवी-देवता की तस्वीर थी. थोड़ी जल्दी थी, इसलिए नाम नहीं पूछ पाई. बस इतना ही पूछा की बाबा, ये सारे झंडे एकसाथ क्यों...जो जवाब आया उसका अंदाज़ा भी आप नहीं लगा सकते...

बाबा ने कहा, हर पार्टी का राज है...चाहे कोई सत्ता में हो या न हो...सभी अपने तरीक़े से शासन कर रही हैं...जब जिसको मौका मिलता है...कर लेता है. झंडा एकसाथ इसलिए लगा रखा है ताकि इनमें से किसी भी शासक की नज़र पड़ जाए तो वो हमें दूसरी पार्टी का समझ नकार न दें...अपना झंडा देखकर खुश हो जाए और हमारा भी कल्याण करे.

भगवान को लेकर उनका काॅन्सेप्ट बहुत मज़ेदार निकला...बोले, जब तक कोई पार्टी का नेता सुध नहीं लेता है तब तक यही मेरा काम चला रहे हैं. लोग समझते हैं, हम कोई बहुत बड़े संत हैं, तो पैर छूते हैं. भगवान की फोटो सोच को यक़ीन करने लायक बना देती है और हमें रोटी मिल जाती है...

मैंने पूछा, बाबा फोटो खींच लूं...बोले खींच लो...पर चाय का पैसा देना होगा...बाबा को दस रूपए थमा, आॅटो में बैठ गई.

आॅटो वाला गुस्सा हो रहा था. बोला मैडम ये सब करोड़पति होते हैं. आपका दिल्ली में घर नहीं होगा पर इनका कहीं न कहीं एक कमरा ज़रूर होगा. धोखेबाज़ होते हैं ये...

पता नहीं जो बाबा ने कहा वो सच था या मेरे आॅटो वाले का कहा...लेकिन बाबा का लाॅजिक मुझे बहुत पसंद आया...




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