ये तस्वीर कबाड़ बटोरने वाले बच्चों से आग्रह करके खींची है। घर की बालकनी से नीचे देखा तो 6-7 कूड़ा बीनने वाले बच्चे झुण्ड बनाकर कुछ कर रहे थे। घर से निकले तो होगें कूड़ा बीनने लेकिन कोई कूड़ा नहीं बीन रहा था। कोई फूल तोड़कर ला रहा था तो कोई चिपकउवा। चिपकउवा, यही नाम पता है इस खर-पतवार का। बचपन में दूसरों पर फेंककर मज़े लिया करते थे, टोकरी भी बनाते थे लेकिन इतना सुन्दर घर ...कभी नहीं बनाया। इस तस्वीर को देखकर एक ही गाना याद आया..; देखो मैंने देखा है ये इक सपना, फूलों के शहर में हो घर अपना....। वाकई उन बच्चें के सपनों का घर ही है ये....
घर के पीछे का हिस्सा...गत्ते की नींव पर खड़ा है ये महल
ये है, दो मंज़िला घर का मुख्य द्वार
घर की हिफ़ाजत के लिए तैनात हैं तीनों
छोटी सी सुल्ताना ने ही बनाया है, सपनों का ये महल
और ये रहा पड़ोसी फ़ातिमा का बंगला
सपनों के घर के बाहर बिखरा मलबा
लो जी पड़ोसी का घर भी बनकर तैयार हो गया
और ये हैं इस घर के सदस्य, ए हैप्पी फैमिली....
बालकनी से इन बच्चों को देखकर रूक नहीं सकी, हाथ में कैमरा लेकर नीचे पहुंच गई। आफताब से आग्रह किया, क्या मैं तुम्हारे घर की फोटो ले लूं.... खुश हो गया, बोला ले लो और मेरी भी लो। बाकी दोस्तों को भी बुला लाया।फोटो ले ली और दिखा भी दी। थोड़ी दूर फ़ातिमा का घर भी बन रहा था लेकिन वो फोटो में कहीं भी नहीं है। बहुत शर्मा रही थी, बिल्कुल नई-नवेली दुल्हन की तरह उसने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया। आफताब ने पूछा घर में लगाओगी.... मैने कहा नहीं कम्प्यूटर पर लगाउंगी। बोला बड़ा में लगाना।
फोटो खींचकर घर आ गई। बहुत देर तक इन तस्वीरों को देखती रही। बार-बार यही सोचती रही कि कितना हुनर है इन हाथों में लेकिन कोई कद्र नहीं है... कूड़ा बीनने को मजबूर हैं ये। यही सारे हुनर बड़े घराने के बच्चे पैसे देकर स्पेशल क्लासेज में सीखते हैं और अगर कुछ बना लिया तो मां-बाप प्रदर्शनी लगवाकर बच्चे को हीरो बना देते हैं। लेकिन यहां कोई नहीं है इस कला को देखने वाला....। लेकिन खुशी इस बात की हुई कि ये बच्चे सपने देखते हैं....और ये हक़ उनकी बद्किस्मती भी उनसे नहीं छीन सकती और कहते हैं ना कि कुछ करना है और तो सपने देखना बहुत ज़रूरी है... ...बस यही चाहती हूं कि इनके रंगीन सपने सच हो जाएं और ये भी आम बच्चों की तरह अपनी जिन्दगी बिताएं।
10 comments:
अद्भुत रचना, अनूठी दृष्टि, लाख महल कुर्बान इन तिनकों के आशियाने पर, वाह...
Commendable observation
very nice to watch
really remarkable
भूमिकाजी ‘भडास’मे आपका आर्टीकल पढनेके बाद मै ‘बतकुचनी’ ब्लॉगपर गया| यहा आपला यह लेख पढने को मिला| क्या खूब लिखा है आपने...
‘‘खुशी इस बात की हुई कि ये बच्चे सपने देखते हैं....और ये हक़ उनकी बदकिस्मती भी उनसे नहीं छीन सकती और कहते हैं ना कि कुछ करना है और तो सपने देखना बहुत ज़रूरी है... ...बस यही चाहती हूं कि इनके रंगीन सपने सच हो जाएं और ये भी आम बच्चों की तरह अपनी जिन्दगी बिताए|’’
दिल को छु लेने वाली बात सादगीसे कहन अत्यंत कठीन होता है| आपले इस लेख मे यह अनुभुती हुई| आपको धन्यवाद| इसी संवेदनशीलतासे आप लिखती रहे इसलिए शुभकामनाए| आपका यह लेख फेसबुकपर शेअर किया..साथमे फुर्सतसे पुरा ब्लॉग पढुंगा| धन्यवाद!
शेखर पाटील
अद्भुत और बेहद सुन्दर! राहुल जी की बात कि लाख लाख महल कुर्बान इन घरों पर, एकदम सच। लाजवाब! और आपका यह कहना कि बड़े घरों वाले लोग प्रदर्शनी लगवाते जैसे सलमान खान एक बार टूथब्रश से रंग डालकर चित्र बना लें तो बड़े और महगे चित्रकार बन जाते हैं, सब तमाशे हो जाते हैं, एक जिंदा सच है। इन घरों को देखने की इच्छा होती है नजदीक से।
aapne jis soch ke sath es tasvir ko publs kiya wastav me kabile tarif hai
बतकुचनी जी बाल भारत के लिए कुछ ऐसी ही शिद्दत लेकर दुष्यंत जी ने लिखा होगा...."घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें.... किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए." इस लेख पर आपको साधुवाद.
इन बच्चों की कल्पना शीलता की दाद देनी होगी. बड़ी प्रसन्नता हुई.
बरास्ता 'राहुल सिंह जी' इधर आना हुआ| सुन्दर पोस्ट, इन बच्चों की खुशियों का अंदाजा लगा रहा हूँ| कितने हैं जो इनके बचपन को औरों के साथ बांटते होंगे..
साबित है कि मानव की सृजनात्मक प्रवृत्ति जन्मजात है .....हाँ उसे बेहतर परिवेश और दीक्षा से उभारा जा सकता है -इन सभी में एक पिकासो हुलसता है -आपकी पोस्ट इस पहलू को भी उजागर कर रही हैं ..आपसे आग्रह है तनिक बोवर बर्ड की इन सर्जनाओं-प्रणय कुटीरों को बच्चों की कलाकृतियों से मिलाएं ....और फिर कुछ विचार करें --तब तक मैं फिर लौटता हूँ...अब तो नियमित ही होगा यहाँ आना !
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