किसी रहस्य से कम नहीं थी ये फिल्म मेरे लिए। रहस्य इसलिए भी की, बचपन से ही सुना की ये फिल्म झकझोर कर रख देती है। चर्चा के दौरान, आम फिल्मों से परे बेहद दबी ज़ुबान में, कुछ अलग ही तरीके से इस फिल्म पर बातें होतीं.... और अगर हम बच्चे देखने को कहते तो हमें डांट, टाल दिया जाता। लेकिन उत्सुकता हमेशा रही कि आखिर ऐसा क्या है इस फिल्म में जिसके बारे में बात करते ही लोगों के स्वर बदल जाते हैं।
आज घर पर इच्छा जताई कि बैंडिट क्वीन देखनी है, और सबने कहा देख लो। बहुत नॅार्मल रिएक्शन था सबका... जबकि मुझे लगा था कि बचपन की तरह आज भी टाल दिया जाएगा। खुशी भी थी कि हमेशा बच्ची समझने वाले आज बड़ा समझ रहे हैं। अगले ही दिन सीडी खरीद लाई, रास्ते में उसे कुछ छिपाने वाले अंदाज़ में ही लेकर आई, ये बचपन की उन बातों का ही असर था। घर आकर फिल्म देखने बैठ गई।
फिल्म शुरू होती है और एक छोटी सी लड़की फूलन गाली के साथ अपना परिचय देती है.. ‘मैं ही फूलन देवी हूं भैनचो....’। चुरकी खड़ी हो गई। लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ी समझ आने लगा कि ये फिल्म आंखों से देखनेभर वालों के लिए नहीं है। ये फिल्म आंखों से दिल और दिल से दिमाग़ में उतारने के लिए है।
पहले दृश्य में दिखाई गई नावें फूलन और मल्लाह जाति के बीच के सम्बन्ध को दिखाने के लिए पर्याप्त है और फूलन का मल्लाह होना फिल्म का सबसे खास बिन्दु है। फूलन अपने पहले डायलॉग के बाद, रास्तेभर अपनी सखी को मां-बहिन की गालियों की जानकारी देती जाती है। लेकिन छोटी सी फूलन को गाली का मतलब नहीं पता... कहती है अच्छा ही होएगो। और कहे भी क्यों ना.. बाबा, गांव के बड़े, ठाकुर सभी को इसी तरह की बातें करते सुन जो रखा है, उसने।
इस छोटे से लेकिन अनोखे परिचय के बाद बाल-विवाह का घिनौना रूप दिखता है। जहां फूलन को, उससे तीन गुनी उम्र के आदमी के साथ महज एक बूढ़ी गाय और पुरानी साइकिल के बदले ब्याह दिया जाता है, बाप को डर है कि कहीं मोड़ी मुंह ना काला करवा दे, सो जल्दी से जल्दी ब्याह दिया।
अगले दृश्य में, बन्द कमरे में मार खाने के बाद पति का एकालाप.... अभी कच्ची है, कब हरिआएगी तू... और फिर उस छोटी सी बच्ची के साथ सांकेतिक रूप में दिखाया गया बलात्कार.. दहशतभरी चीखों के बाद फूलन का मासूमियत से कहना कि दर्द हो रहा है.. दिल में टीस पैदा करता है। और फिर एक दिन उस माहौल से भाग जाना...।
पर अच्छाई के लिए कहीं भी नहीं है इस फिल्म में..। फूलन मायके आ जाती है, लेकिन पति की सताई हुई बेटी बनकर नहीं, कलंक बनकर, बोझ बनकर, पिहरकाटो बनकर। और इन्हीं सबके बीच छोटी सी फूलन, जवान हो जाती है। लेकिन पूरी फिल्म में आपको उसका जवान होना, श्राप सा ही लगता है।
गांव के लड़को के लिए वो नदी-सी है, जिसमें वो जब दिल करे फब्तियों के कंकण मार सकते हैं। सरपंच के बेटे को तरजीह ना देने पर फूलन को पंचायत में खड़ा कर दिया जाता है, जहां एक से बढ़कर एक घटिया शब्द के साथ फूलन की इज्जत उछाली जाती है। साथ ही एक बाप की कमजोरी और छोटी जाति की मजबूरी, दिखाई देती है। गांव से चले जाने के आदेश के साथ ही शुरू होता है एक नया अध्याय।
इसके बाद ही फूलन डाकुओं के हाथ पड़ जाती है और शुरू होता है, यातनाओं और चीखों का एक लम्बा प्रकरण। बाबू गुजर, द्वारा फूलन का बलात्कार खौफ पैदा कर देता है। साथ ही विक्रम मल्लाह की सहानुभूति, जो प्रेम कम दैहिक आकर्षण ही ज्यादा है लेकिन फिर भी सच्चा है। विक्रम को टांग में गोली लगना, फूलन द्वारा उसकी सेवा करना, उनका प्यार और एक-दूसरे के साथ खुश रहना, थोड़े वक्त के लिए सुकून देता है। लेकिन फिर विक्रम मल्लाह की मौत....फूलन के दुर्भाग्य के चरम को न्यौता देती है। पुलिस कस्टडी में उसका शोषण, जमानत कराने वाले ठाकुरो द्वारा सामूहिक बलात्कार और नंगा करके पूरे गांव में घुमाए जाने के दृश्य आपको पत्थर बना देते हैं।
और उसके बाद... एक नई शुरूआत। डकैत फूलन का बदला। वास्तविक जिन्दगी में फूलन देवी को इसी कारण जेल जाना पड़ा लेकिन रील लाइफ में फूलन को ऐसा करते देख सचमुच बहुत खुशी होती है, कि कैसे एक चूर-चूर हो चुकी औरत खुद को बटोरकर एक बार फिर खड़ी होती है।
फिल्म का अंत बहुत कुछ कहता है। फूलन का आत्मसमर्पण और लोगों का उसकी जय जयकार करना, विस्मय पैदा करता है कि क्या ये वही लोग हैं जो हमेशा गूंगे रहे.. आज खुलेआम दस्यु सुन्दरी की जय-जयकार कर रहे हैं..। क्या ये फूलन के साथ हैं... औ अगर थे तो ये सब क्यों होने दिया.... बहुत कुछ।
फिल्म देख ली लेकिन आज भी इसे अच्छे और बुरे में से किस श्रेणी में रखूं, समझ नहीं आ रहा। एक्टिंग, डाइरेक्शन, संवाद हर ऐंगल से फिल्म बेहतरीन है और विषय के आधार पर बेहद संवेदनशील। लेकिन फिल्म देखकर समाज से डर लगने लगा, शायद ही कभी इसे दुबारा देखने की हिम्मत कर सकूं।
फिल्म से जुड़े तमाम तथ्य पढ़े जिसमें ये लिखा था कि ये फिल्म दर्शकों के बीच नहीं जानी चाहिए, ये गलत है वो गलत है.. कई संस्थाओं ने तो कोर्ट तक में इसे खींचा लेकिन ये शेखर कपूर की हिम्मत ही थी जो फिल्म रीलिज़ हुई और एक छिपी हुई सच्चाई सामने, पर्दे पर आई।
शेखर कपूर ने उस वक्त एक कविता लिखी, जो फिल्म की सार्थकता जताने के लिए थी....यह कविता 28 अगस्त 1994 के टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुई थी-
शीर्षक था- वेलकम टू द रिअल वर्ल्ड
अपनी एयरकंडीशनर कार में, शिट स्ट्रीट से गुजरते हुए
अपनी खूबसूरत पोशाक और, बड़ी सी बिंदी पहनकर
अपनी गाड़ी के शीशे चढ़ाना मत भूलना
क्योंकि इस गंदी सड़क की दुर्गन्ध, आप जैसों के लिए नहीं है
यह उन औरतों के लिए है, जो सड़क किनारे बैठकर टट्टी करती हैं
इस शब्द से आपकी संवेदना को ठेस पहुंचती है
पर दूसरा कौन सा शब्द मैं इस्तेमाल करूं
आप जब अपने टाइल्स सजे, डिजाइनर टॉयलेट में बैठकर
हाथ में श्याम आहुजा के रंगो से सजे, तौलिए लेकर यही करती हैं
तो उसे क्या कहते है
ये औरतें जो सड़क पर अपने शरीर के, सभी हिस्सों को उघाड़ते हुए
अपनी चिथड़े काली छतरी के पीछे, सिर्फ अपना चेहरा छिपा लेती हैं
और रासते से गुजरते ट्रैफिक से छिपने की, एक वयर्थ सी कोशिश करती हैं
तब आप कार के शीशे चढ़ाते हुए, अपना मुंह दूसरी ओर घुमा लेती हैं
ये दो अलग अलग तरह की दुनिया है
जो एक-दूसरे की उपेक्षा करने की भरपूर कोशिश करती है।
लेकिन किसे मालूम है, कि आपके पैखाने से भी वही बदबू आती है
बेशक वह बोन चाइना के ट्यूब से होते हुए, आपकी अनछुई साफ अंगुलियों के
एक झटके से, गटर की ओर बढ़ जाती हैं
फिर आप सोचते हैं कि
ये कौन है, जो यह सारी बकवास लिख रहा है
क्या यह बैंडिट क्वीन का डाइरेक्टर है, क्रूा वह सॅाफ्ट लेंस या फिल्टर
इस्तेमाल नहीं कर सकता था
उसे क्या हक़ है हमें, इन गंदी नालियों तक घसीट कर ले जाने का
हमारी नाक को दुर्गन्ध में दबाए रखने का, जब तक हमारा दम ना घुट जाए
और हम दूसरी दुनिया की सचचाई देखकर हांफने न लगे
फिल्म के लिए बस यही कि यह उस कलात्मक मूर्ति की तरह है जिसे आर्ट गैलरी में रखें तो तारीफ मिले, कला का बेहतरीन नमूना लगे और अगर इसी को चौराहे पर या तथाकथित सभ्य समाज के बीच रख दें तो इसकी नग्नता को ढकने का मन करे।
6 comments:
यथार्थ की उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन वह सिर्फ इसलिए नहीं पूजा जा सकता कि यथार्थ है.
देखी तो नहीं है अभी। शुरूआत देखी थी लेकिन आगे नहीं देखा। नाम तो पहले भी सुना है। लेकिन यथार्थ को बेचकर भी खानेवाले से नफ़रत सी होती है जिसमें प्रकाश झा भी हैं और ये भी। सवाल इतना ही है कि प्रेमचंद भी यथार्थ के लेखक थे लेकिन तमाशेबाज नहीं। फिर भी फिल्म बेहद अच्छी होगी, इसकी उम्मीद है।
आज पहली बार आपका ब्लाग देखा। बहुत उम्दा..मसले गांव से जुड़े हों तो उसे जरूर जगह मिलनी चाहिए। आखिर इस देश की बुनियाद वही है। जिस दिन देश सब जगह से हार जाएगा, तब यही गांव उसे जीने भर ऊर्जा देंगे। ठीक परिवार की तरह..गांवों औऱ बुनियादी जीवन पर लेखनी के लिए साधुवाद..
जब आप फिल्म कि शुरुआत में प्रायोजकों पर गौर करेंगी तो पाएंगी कि शेखर कपूर ने फासीवादियों और भूराजनैतिक शक्तियों के हाथों कठपुतली बन के यह फिल्म बनायीं थी. शेखर कपूर यह जानते थे या नहीं यह अलग बात है. भूमिका जी यदि इस विषय के साथ ईमानदारी करनी है तो कृपया यह भी लिखें की इस फिल्म को कितने विदेशी फिल्म समारोहों में दिखाया गया. भूखे नंगे भारत की छवि बनाने के लिए. ताकि भूराजनैतिक महाजनों को दबाव बना के उधर देने का मौका मिल सके. और उस उधर और ब्याज की वसूली से परिस्थितियां उत्पन्न हों वे इस तरह की फिल्मे बनाने को प्रेरित करती रहें. शेखर कपूर जैसे बहुतायत कठपुतलीनुमा बोलीवुड में पाए जाते हैं आशा है की आप उनके क्रियाकलापों को भी जानती होंगी. कोशिश करिएगा कि परदे के पीछे कि हकीक़त भी लिख के लोगों तक पहुंचा सकें.
बैंडिट क्वीन , जितना देख कर इस फिल्म को सचाई से रुब -रु नहीं हुआ जा सकता ,उतना आप का लेख पढ़ कर सचाई से रुब-रु हुआ ,कारण,,,,
-,लोग गाव की बेबस फूलन से पाठा के जंगल की सुंदरी बनी, बनने के कारण तलाशने नहीं जाते थे , जाते थे इसलिए की उस बैंडिट क्वीन में किसी नारी की बिबसता कम .नग्नता देखने का का ललक ज्यदा होती rajnish pandey
अच्छा लिखा है आपने।
शुभकामनाएं...........
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