Sunday, September 04, 2011

मेरा पहला ऑडि‍शन...

कि‍ताबें, इन्‍सान की सबसे अच्‍छी दोस्‍त होती हैं....सास बहू के झगड़े की तरह ये वाक्‍य भी हर घर में बहुत कॉमन है। बच्‍चा जोड़-जोड़कर पढ़ना शुरू करता नहीं कि‍ घरवाले कि‍ताबों को दोस्‍त बनवाने की जुगत में लग जाते हैं। ओला-पानी, वि‍ष-अमृत और चि‍प्‍पी खेलने की उम्र में कोई भला कि‍ताबों को दोस्‍त बनाए भी तो कैसे ?
सारी कवायद बस इसलि‍ए कि‍ बच्‍चा खूब पढ़े, अव्‍वल आए और बुरी संगत से बचा रहे। इस पर भी न माने तो इस बात को कि‍सी महान आदमी से जोड़कर एक नया कि‍स्‍सा तैयार कर दि‍या जाता, जि‍समें उसका फंसना लगभग तय ही होता है। मां, ऐसी ही सेंटी बातें करके पढ़ने को कहतीं, पर छूट थी कि‍ कोई भी कि‍ताब पढ़ सकते थे जरूरी नहीं कि‍ कोर्स की ही हो, कम से कम उच्‍चारण तो ठीक हो। उस वक्‍त उच्‍चारण, बस पढ़ने तक ही सीमि‍त था, उसकी शुद्धता कोई मायने नहीं रखती थी मेरे लि‍ए।
स्‍कूलिंग खत्‍म करके दि‍ल्‍ली आई, यहां पहली बार उर्दू ज़बान से पाला पड़ा और तभी नुख्‍़ते से भी रिश्‍ता जुड़ा। इससे पहले कभी ये समझ नहीं आता था कि‍ सफर और सफ़र में क्‍या अंतर है, या फ़ूल और फूल कैसे अलग हैं। जब नुख्‍़ते की समझ आई तो पता चला कि‍ कि‍तना अशुद्ध बोला करती थी। अक्‍सर ऐसा होता है कि‍ हम हर शब्‍द के साथ नुख्‍़ता लगा देते हैं, को कहना हमें बहुत प्रभावी लगता है, ना कोई नि‍यम ना कोई पाबंदी।
रेडि‍यो का ऑडि‍शन था, सामान्‍य ज्ञान की लि‍खि‍त परीक्षा पास कर चुकी थी। इस प्रोफेशन में बोलने के ही पैसे मि‍लते हैं, लेकि‍न शुद्ध और भाव के साथ, बोलने के। ऑडि‍शन के लि‍ए, सभी को कुछ लाइनें दी गई थीं, जि‍से माइक पर बोलना था। मेरा मैटर कुछ ऐसा था, श्‍याम संग सुन्‍दर राधा, बाग़ में फल-फूल के बीच आंख-मि‍चौली खेल रही थी, कि‍ तभी, शासन के मद में डूबा शाश्‍वत वहां आ धमका। तीन-चार बार पढ़ा और तब तक मेरा नम्‍बर आ गया, ऑडि‍शन हुआ और फेल हो गई लेकि‍न उस दि‍न उच्‍चरण की कमी पता चली। अमूमन हम फल-फूल को फ़ल-फ़ूल ही बोलते हैं, शासन को शाशन और ना जाने क्‍या-क्‍या गलत बोलते रहते हैं। इन्‍हीं कुछ एक दो शब्‍दों की भारी गलती की वजह से उस सेशन में डि‍स्‍क्‍वालीफ़ाई हो गई।
लेकि‍न पता नहीं कब और कैसे उच्‍चारण को लेकर बहुत सजग हो गई, इस बीच बहुत सी नई बातें भी पता चली। जैसे; क़ानून और कानून के बीच का फ़र्क। जि‍समें एक का मतलब तो लॉ है जबकि‍ दूसरे का चूल्‍हा। इसी तरह कलम, गलत शब्‍द है असल में क़लम सही शब्‍द है। ऐसे हजारों शब्‍द मि‍ले जि‍नका उच्‍चारण गलत करती आई थी। कुछ ऐसे भी मि‍ले जि‍न्‍हें सही बोलने के चक्‍कर में गलत बोलती थी। जारी सही शब्‍द है लेकि‍न उसे प्रभावी बनाने के लि‍ए ज़ारी कहा करती थी। नमस्‍कार को नमश्‍कार कहा करती थी। इसी बीच जन और ज़न के बीच का भी अन्‍तर पता चला...।
उच्‍चारण में सुधार करने में सबसे ज्‍़यादा मदद की, महकता आंचल ने। महकता आंचल, तरह-तरह की प्रेम कथाओं और मि‍यां-बीवी के रि‍श्‍तों का बेहद नाटकीय संग्रह। कहानि‍यां इतनी झूठी कि कई बार हंसी आ जाती थी लेकि‍न वाकई उसे पढ़कर ज़ुबान बहुत साफ़ हो गई।
3 महीने बाद फि‍र ऑडि‍शन दि‍या और सेलेक्‍ट हो गई, सेलेक्‍शन टीम, कमी और अच्‍छाई बता रही थी। मेरे लि‍ए कहा कि‍ आवाज़ को भारी करो, बच्‍चों जैसी लगती है लेकि‍न उच्‍चारण ठीक है। ये कॉम्‍प्‍लीमेंट मेरे लि‍ए बहुत खास था और अब कोशि‍श करती हूं कि‍ सही ही बोलूं।

6 comments:

JANSAMVAD said...

porvanchal ke logo se aisi galti ho hi jati h good keep it ....

JANSAMVAD said...

good knowledge given by u
vase kis fm me kam karti ho ap rj ho

P.N. Subramanian said...

इस पर याद आया, हमारे पिता हमें उच्चारण को सही रखने के लिए तालू (जीभ) की घिसाई करवाते थे.

Rahul Singh said...

नुक्‍ते (या नुख्‍़ता, पता नहीं) के तो कितने ही पेंचो-खम हैं. आमतौर पर कोशिश का उच्‍चारण कोशिस की तरह और टुकड़ा, तुकड़ा उच्‍चारित होता है.
आकाशवाणी के एक परिचित बताते हैं कि जीभ लड़खड़ा न जाए इसलिए स्‍वतंत्रता को स्‍वाधीनता ही कहा जाता है वहां
.
हमारे एक अग्रज हैं, खुद पढ़ाकू, एक दिन सवाल किया क्‍या तुम्‍हें नहीं लगता कि ये जो पढ़ने-लिखने की आदत है, आलसियों की होती है, काम-धाम करना नहीं तो किताब ले कर बैठे हैं दिन भर, जैसे कुछ महान कर रहे हों, मैं तो अब तक जवाब नहीं दे पाया उन्‍हें.

मयंक said...

आकाशवाणी का ऑडीशन अच्छा खासा मुश्किल है...और ऊपर से बिग बॉस सरीखा सवाल पूछ रहा शख्स दिखाई भी नहीं देता है...हमारे साथ भी मज़ेदार मामला हुआ था...हालांकि पहली बार में ही हमको आकाशवाणी ने रख लिया था...पर दरअसल चूंकि उस वक़्त भोपाल में पढ़ रहे थे...और वहीं पर ऑडीशन था...वहीं न तो नुक़्ते लगाने का रिवाज़ है, और न ही ऐ और औ की मात्राएं लगाने का चल...तो ऑडिशन खत्म होते ही बिग बॉस की आवाज़ आई कि बिग बॉस जानना चाहते हैं कि क्या आप लखनऊ से हैं...और फिर बिना पूछे ही कहा कि हमको यकीन है कि वहीं से हैं जनाब...और हम दोनो ही हंस पड़े थे...लखनऊ में पैदा होने और रवायती उर्दू में परवरिश का एक फ़ायदा....

चंदन कुमार मिश्र said...

राहुल जी की बात से सहमति। उनके उस सवाल का जवाब देने की कोशिश की जा सकती है। हमारे इलाके में तो बड़ी ड़ का उच्चारण ही नहीं होता। हम भी लगभग नहीं करते या कहिए नहीं आता। वैसे ज या ज़, क या क़ आदि भी बोलना शायद नहीं आता अधिकांश लोगों को।

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