Monday, September 26, 2011

दिल्ली की मेट्रो से कम नहीं, लखनऊ की टैक्सी का जलवा


मेट्रो, अगर दि‍ल्‍ली की जीवन रेखा है तो टैक्सी लखनऊ की. इस एक समानता से इतर शायद ही, दोनों में (मेट्रो, टैक्सी) कोई और समानता हो. जहां मेट्रो में, हर सेकेण्ड गाने ना बजाने की घोषणा होती है...वहीं लखनऊ की टैक्सी आपको डीजे का एहसास कराती है...वीआईपी इलाके से लेकर तंग गलियों तक इन्हीं का राज चलता है...तीन की सीट पर पांच....दो नीचे, दो लटके हुए और तीन या चार ड्राइवर के साथ...क्षमता दस की, पर सवारी पन्द्रह की।
नवाबों के शहर लखनऊ में एक दौर वो भी था, जब तांगे और बग्घियां चला करती थीं लेकिन अब न तो वो नवाबी शान-ओ-शौकत रही और ना ही वो राजसी सवारियां। दौर है धूम-धड़ाके के साथ चलने वाली टैक्सियों का। बैठने में असुविधा भले हो लेकिन मनोरंजन की पूरी गारन्टी होती है। तरह-तरह के पोस्टर.. जो यूनिटी इन डाइवर्सिटी का बेजोड़ नमूना प्रस्तुत करते हैं।
वर्तमान के नाचने-गाने वाले देवी-देवताओं (हीरो-हीरोइन) से लेकर, मंदिरों में केवल उलाहने सुनने वाले भगवान तक, हर किसी के दर्शन यहां हो जाते हैं। जिसका जैसा टेस्ट, वैसी उसकी टैक्सी। कुछएक ऐसे भी मिल जाएंगे़ , जिनकी श्रद्धा भारतीय देवी-देवताओं से उठ चुकी है और वो विदेशी देवी-देवताओं को टहलाते मिल जाएंगे।
इन टैक्सियों की सबसे खास बात तो ये है कि ये इन्सान की सारी इंद्रियों को प्रभावित करती है। जहां रंग-बिरंगे पोस्टर देखकर नयन सुख सुलभ होता है, वहीं तरह तरह के लोग, अलग-अलग खूश्बू-बद्बू बिखेरते हुए, कभी नासा छिद्र को सिकोड़ने तो कभी हिकभर खूश्बू समेट लेने को बाध्य कर देते हैं। तीन की सीट पर पांच..स्पर्श सुख़ के सारे आपशन्स खोल देता है और मनचलों के लिए गोल्डन चांस भी..बहती गंगा में हाथ धोने का।
हर दो मिनट पर रूककर चलने वाली इस टैक्सी में स्नैक्स खाने का अपना ही मजा है। वो भी गाने सुनते-सुनते....हां लेकिन अगर आप गानों को लेकर बहुत पोज़ेसिव हैं तो ये संभव है कि आप रोने लगें। गाने के बोल तो भले मैच कर जाएं लेकिन आवाज़..... सकते में डाल देगी..कि ये गाया तो रफी ने है पर रफी और इतने बेसुरे....। पाइरेसी का जलवा, दिन-दहाड़े, दिनभर सड़क पर अपने जलवे बिखेरता रहता है और किसी को ये क्राइम भी नहीं लगता।
जितनी खास ये टैक्सी होती है, उतना ही खास होता है इसका ड्राइवर। पढ़े-लिखे तो क्या होते होगें पर मार्केट की हर स्ट्रैटजी इन्हें बखूबी आती है। दूसरे ब्रांण्स की तरह भले इनके पास फेस ना हो लेकिन सुंदर चेहरे की कीमत ये भी जानते है। कोई खूबसूरत चेहरा बैठेगा तो उसके पीछे मनचले आएंगे ही..इसलिए पूरी कोशिश रहती है कि ऐसा ग्राहक चूके ना..।
बहरहाल लखनऊ की टैक्सी आपको आराम के अलावा, सारे इंद्रीय सुख देती है...वो भी बेहद कम दाम में.....और कम पैसे में सफर तय करने के बाद आप ये भूल भी जाते हैं कि रास्तेभर आपका एक ही पेंदे पर टिके हुए थे। तो अगर कभी लखनऊ आएं तो इमामबाड़े के साथ, इन पर भी गौर ज़रूर फऱमाएं...।





6 comments:

P.N. Subramanian said...

नखलवु की इस विशेषता की जानकारी नहीं थी. पढ़ कर ही विशेष सुख की अनुभूति हुई. आभार.

Atul Shrivastava said...

लखनऊ कभी नहीं गया... पर आपने तो लखनऊ की टैक्‍सी की यात्रा घर बैठे ही करा दी....
बेहतरीन तरीके से लिखी पोस्‍ट....

आभार और शुभकामनाएं............

चंदन कुमार मिश्र said...

यह हाल है। लेकिन ऐसा कई जगह है, सिर्फ़ लखनऊ में ही नहीं। लगता है आप दिल्ली के लिए समर्पित हो रही हैं, कुछ अधिक ही।

चंदन कुमार मिश्र said...

यह हाल है। लेकिन ऐसा कई जगह है, सिर्फ़ लखनऊ में ही नहीं। लगता है आप दिल्ली के लिए समर्पित हो रही हैं, कुछ अधिक ही।

ashish said...

हा हा , सुँदर, सटीक अवलोकन और विश्लेषण . गाजीपुर से दिल्ली बरास्ते नख्लौ मज़ेदार रहा .

N Rai said...

ऑटो का सफर और दशहरे की यादें आज से ३० साल पीछे खींच ले गयीं|गरमी की छुट्टीयों में गाज़ीपुर के मजे और लखनऊ के दिन, महीनों की यादें ताजा हो गयीं|
काश ईश्वर बचपन के दिन लौटा देते|
इस सुन्दर लेख के लिए साधुवाद| ईश्वर आप पर सदैव कृपा रखें|

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