बदलते वक्त में जहां विचार बदले हैं, रहन-सहन बदला है, बात-व्यवहार का तरीका बदला है...वहीं शब्दों के मायने भी बदले हैं और साथ ही बदला है उनके प्रयोग का कारण..उनका उद्देश्य। राजनीति और पत्रकारिता..दो ऐसे क्षेत्र..दो ऐसी विधाएं.... जहां शब्दों की ही कमाई खाई-पकाई और बेची जाती है।
पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान तो फिर भी तरह-तरह के पाठ पढ़ाए जाते हैं कि कैसे शब्द इस्तेमाल करने चाहिए और कैसे नहीं..लेकिन राजनीति की पढ़ाई एकलव्य और द्रोण की कक्षा जैसी ही होती है...जहां सीखने वाला अपने पसंदीदा नेता को कॉपी करते हुए पारंगत बनता है...और राजनीति की कोई रूटीन क्लास हो..ऐसा भी नहीं है। लेकिन किसी क्लास की जरूरत भी नहीं है क्योंकि ये अकेला एक ऐसा व्यवसाय है जहां आप जितने असभ्य हैं..गंवार है...बेशर्म हैं (व्यवहार से) आपके सफल होने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।
पढ़ाई-लिखाई की इस असमानता के बावजूद राजनीति और पत्रकारिता कई मायनों में जुड़वा भाई की तरह ही लगते हैं, समानता दर्शाते हैं। समानता विचारों की भी... और शब्दों की भी। तमाम विचारों और शब्दों के उदाहरण हैं और उन्हीं में से एक है शब्द वरिष्ठ।
वरिष्ठ शब्द का प्रयोग जितना राजनीति में किया जाता है उतना ही पत्रकारिता में भी...।हालांकि सीनियॉरिटी का ये परिचायक हर विभाग और हर विधा के लिए है लेकिन उक्त दो में इसका खास महत्व है।
वरिष्ठ का प्रयोग सम्मान देने के परिपेढ्य में किया जाता है लेकिन राजनीति और पत्रकारिता में इसका प्रयोग एक अलग अर्थ और एक अलग भाव के लिए किया जाता है। पिछले दिनों एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के एक तथाकथित “वरिष्ठ” नेता कैमरे के आगे बैठकर अपने प्रतिद्वन्द्वी के लिए गला फाड़ रहे थे। नेता जी इतने फ्लो में अपशब्द बोल रहे थे कि साफ पता चल रहा था कि उन्होंने भारत भ्रण कर रखा है...क्योंकि अपशब्द शब्दों के चयन में विकल्प ही विकल्प सुनने को मिल रहे थे।
नाम लेना उचित नहीं होगा लेकिन मंत्री जी के नाम के साथ भी एक “वरिष्ठ” जुड़ा हुआ था लेकिन नेता जी के आगे लिखे वरिष्ठ ने भ्रम पैदा कर दिया। स्कूल में वरिष्ठ का जो अर्थ बताया गया था, ये कहीं से भी उससे मेल नहीं खा रह था। अभद्रता की सीमा जब सुनने की क्षमता से आगे बढ़ गई तो अनायास ही उंगलियों ने हरकत करते हुए चैनल बदल दिया।
दूसरे चैनल पर टॉक शो चल रहा था और विषय था भविष्य में पत्रकारिता में संभावना...। बहस अपने पूरे शबाब पर थी और खास मेहमान थे एक राष्ट्रीय दैनिक के वरिष्ठ सम्पादक। संपादक बुजुर्ग थे सो नई पीढ़ी को कोसकर खुद को बड़ा दिखाने में लगे हुए थे। वरिष्ठता का परिचय उनकी जबान के तल्ख मिजाज से ही पता चल रहा था। मौका और दस्तूर देखते हुए उन्होंने जमकर खीस निकाली और तरह-तरह के अपशब्दों की आहुति के साथ ही टाक शो समाप्त हो गया.
इसी के साथ ही वर्तमान में प्रचलित वरिष्ठता की नई परिभाषा भी पता चली.. कि वर्तमान में वरिष्ठ वही है जो सामने वाले को ज्यादा से ज्यादा बेइज्जत कर सके... और ऐसा करने में ही खुद की श्रेष्ठता समझे। श्रेष्ठ बनने के लिए ना तो किसी डिग्री की ज़रूरत है और ना तो किसी पद की.., जरूरत है तो बस अपशब्द कोष को कंठस्थ करने की।
हर दफ्तर में चाहे वहां के कर्मचारियों की संख्या २-४ ही क्यों ना हो, वरिष्ठ कहलाने की तमन्ना जरूर रहती है। गौर करें तो आज की वरिष्ठता योग्यता के कम और नीचता के ज्यादा करीब है। ऐसे में अगर आपका अपशब्द कोष धनी है तो ये एक बेहतर व्यवसाय का विकल्प हो सकता है, कोचिंग सेंटर खोले जा सकते हैं। और आने वाले वक्त में अगर राह चलते इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की जगह धड़ल्ले से गाली बको इंस्टीट्यूट का बैनर दिख जाए तो मान लीजिएगा यही वो शैक्षिक केन्द्र है जहां वर्तमान का वरिष्ठ बनाया जाता है।
5 comments:
मेरी आज की पोस्ट के शीर्षक से मिलता जुलता जब ब्लॉग का नाम देखा तो खिंचा चला आया। बढ़िया ब्लॉग है। टेम्पलेट भी पसंद आया और लेखन भी।
वरिष्ठ का संधि विच्छेद सही नहीं लग रहा है। …आपकी बात से याद आया कि भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने संसद में बोले गये अपशब्दों को (शायद) 800 रूपये की कीमत वाली किताब बनाकर छापा है…
वरिष्ठ के संधि विच्छेद से मैं भी सहमत नहीं और इस बात से भी कि वरिष्ठ वह होता है जो ज्यादा बेइज्ज्त कर सके.....
सही वरिष्ठता की पहचान यह है कि वह अपने से नीचे के लोगों को सही मार्गदर्शन दे.... जो बेइज्जत करे वो वरिष्ठ कहलाने के लायक नहीं।
शायद कुछ वरिष्ठों का प्रयोजन यही होता है कि अभद्रता के भरोसे उल्लेख होता रहे उनका.
सुन्दर लेखन. मनभावन. वरिष्ट नहीं.
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