Friday, November 11, 2011

नाम भले ऐश हो गया हो, रहेंगी तो वो नकुशा ही....


आज लगभग हर घर में मां दुलार से बेटी को लाडो और बेटे को कुंवर सा कहने लगी है, या फिर डिकरा-डिकरी,  मोड़-मोड़ी। राष्ट्रीय न होने पर भी ये प्रान्तीय शब्द खासा प्रचलित हो गए हैं और इन शब्दों को प्रचलित बनाने का श्रेय अगर किसी को सबसे अधिक जाता है तो वो हैं टीवी सीरियल्स। बालिका वधू में जहां राजस्थानी संस्कृति और परंपरा की झलक देखने को मिलती है वहीं साथिया में गुजराती। जितने सीरियल्स उतने ही रंग। ऐसे में केवल ये कहना कि टीवी शोज़ बर्बाद करते हैं...गलत होगा। आज राजस्थानी परिवेश की दादी सा के साथ रहकर एक पूरबिया भी राजस्थानी परंपरा और रहन-सहन को कुछ हद तक समझने लगा है उसी तरह ललिया के साथ रहकर एक शहरी भी बिहार के गांवों के बात-व्यवहार से, चाल-ढ़ाल से अनजाना नहीं रह गया है। 
यूं तो हर सीरियल के किरदार याद रखना, कहानी याद रखना अपने आपमें किसी चुनौती से कम नहीं है लेकिन फिर भी कुछ एक ऐसे चरित्र होते हैं जिन्हें याद करने की जरूरत ही नहीं पड़ती, उनका नाम ही सीरियल की पहचान बन जाता है। वर्तमान में कई ऐसे सीरियल हैं जिसके पात्र ही उसकी पहचान बन गए हैं..जैसे बालिका वधू की आनंदी, पवित्र रिश्ता की अर्चना और लागी तुझसे लगन की नक्कु..नकुशा। 
नकुशा का किरदार, अपने आपमें बड़ा अनोखा है. एक लड़की जो खूबसूरत होकर भी बदसूरत बनी रहना चाहती है, जो स्वयं ही उपेक्षित बनी रहना चाहती है...फिलहाल तो कहानी बहुत आगे बढ़ चुकी है। लेकिन जिस वक्त ये सीरियल शुरू हुआ था, यही दिखाया गया था कि नक्कु की मां उसके पूरे बदन पर राख का लेप करती है ताकि उस पर किसी बुरी नजर न पड़े, वो बदसूरत लगे और उपेक्षित बनी रहे। 
लेकिन आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में ही एक ऐसा गांव भी है जहां इसी नाम की २८५ लड़कियां हैं......और अगर आप ये सोच रहे हैं कि ये कोई बड़ा ही शुभ नाम है तो आप गलत हैं। नकुशा का मतलब होता है अनापेक्षित अर्थात् जो बिन बुलाया हो...पूरबिया जबान में कहूं तो अधिका का हो। यानि जन्म के साथ जो पहचान मिली वो भी एक गाली के तौर पर...। पैदा होने के बाद हश्र क्या होता है..बताने की जरूरत नहीं,अख़बार और न्यूज़ चैनलों की टीआरपी महिलाओं पर हो रहे, हुए अत्याचारों की कहानियों पर ही टिकी हुई है।
महाराष्ट्र के सतारा जिले में लगभग २८५ लड़कियों के नाम नकुशा या नकुशी हैं,जिसका मतलब है अनापेक्षित। ये कुछ ऐसा ही है जैसा गांव-देहात में कुजात होना। एक ऐसी कौम जिसे सबसे अलग रख-छोड़ दिया जाता है। एक रिपोर्ट में ये पढ़ा कि एक सरकारी संस्था ने बालिका उत्थान के लिए सतारा जिले में एक कार्यक्रम का आयोजन कर इन लड़कियों को नए नाम नवाज़े हैं...कुछ लड़कियों ने तो अपनी मर्जी से नाम रखे। कुछ को ऐश बनना है तो किसी को रानी तो किसी को कुछ और। जन्म के बाद हुए इस दूसरे नामकरण समारोह में इन लड़कियों ने अपने मनमुताबिक नाम रखे. महाराष्ट्र के इस जिले में प्रति १००० लड़कों पर ८८१ लड़कियां हैं..जो ये तय करने में मदद करता है कि क्षेत्र में लड़कियों की हालत क्या होगी। 
भले ही इन लड़कियों ने खुद को नए नाम से जोड़ लिया हो लेकिन क्या फायदा...? जिनके मां-बाप और समाज ने उन्हें पैदा होते ही अनापेक्षित मान लिया हो, बोझ मान लिया हो ऐसे में एक नाम बदलना कितना फर्क पैदा कर सकता है..? क्योंकि दिल से तो वो अब भी नकुशा ही रहेगी...ना कि ऐश्वर्या....। 

3 comments:

Rahul Singh said...

ऐसा ही कुछ शायद घुघूती बासूती जी ने लिखा है. नाम के अभिप्राय को गलत साबित करना ही इस मानसिकता को बदलेगा.

चंदन कुमार मिश्र said...

पहले तो यह कि धारावाहिकों में भाषा की समझ ही नहीं होगी क्योंकि बिहार की भाषा की जगह बस एक खास शैली में शब्दों को बोलना, गलत-सही ढंग से दिखा देना ही इनकी सीमा और लक्ष्य हैं…इसलिए ये सब कुछ के नाम पर कुछ दिखाते हैं…दूसरा यह कि ऐसे धारावाहिक भारत की कितनी आबादी देखती है?…

वैसे मुद्दा तो लड़कियों का है…भोगना होगा ही दस-पंद्रह साल बाद सभको इस अनुपात की समस्या को…नाम नकुशा शायद अनखुशी या फाँस माने अंकुश से बना है…नाम बदलने से शायद ही कुछ होगा…हालाँकि इसके भी अपवाद हैं, अलग परिणाम थे समाज में कभी…

Atul Shrivastava said...

गंभीर विषय पर लिखा आपने।
सच में बेटियों की हालत क्‍या है... इस देश में इस बात को दर्शाता है महाराष्‍ट्र के सतारा का यह गांव।
बेटी बचाओ और इसके साथ ही लडकियों के लि लिए सरकारी तौर पर चलाए जा रहे विविध कार्यक्रमों और योजनाओं पर तमाचा है इस तरह की हरकत।
नाम में क्‍या रख्‍खा है..... बेटियों ने भले ही अपने नाम को बदल लिया हो पर जरूरत है इस तरह की मानसिकता को बदलने की।

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