मॉल जाना कभी भी बहुत रास नहीं आता है..। सबकुछ बेहद दिखावटी और औपचारिक
लगता है वहां । पर सच यह है कि इसकी जरुरत को नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। इसलिए
महीने में कभी-कभार एक-दो चक्कर लग ही जाते हैं...। जिसमें खरीदना तो कम ही होता
है पर विन्डो शॉपिंग करके बहुत सी नई चीजों का नयन सुख मिल जाता है। इससे पहले लखनऊ के सहारागंज मॉल
के एक नजारे का बखान कर चुकी हूं। इस बार नोएडा के स्पाइस मॉल ने जिन्दगी के
बहुत से रंग देखने का मौका दिया। कुछ दिन पहले स्पाइस जाना हुआ..। कुछ खरीदने
के मतलब से नहीं..बस समय काटने के लिए....।व्यक्तिगत अनुभव से कह रही हूं कि समय
काटने के लिए फूड कोर्ट से बेहतर शायद कोई जगह नहीं..। खैर अकेले होने के नाते स्थिति थोड़ी असमान्य थी....कि बैग टेबल पर छोड़कर आर्डर देने नहीं जा सकती थी...और ऐसा
न करने की हालत में खड़े होने की सजा भुगतने का पूरा डर था..। पर किसी तरह दोनों
को मैनेज करते हुए महाराष्ट्रा फूड काउंटर पर पहुंची...। लिस्ट में कोई भी व्यंजन
100रुपए से कम का नहीं था...सौभाग्य से 200रुपए थे मेरे मोटे पर्स में..जो अक्सर
कागज-पत्तर की वजह से किसी मोटी सेठानी का लगता है...। 110 रुपए में 4 साबूदाने
के पकोड़े और हरी चटनी लेकर अपनी कुर्सी पर बैठ गई..। कुछ लोगों की नजर में कहीं
बैठकर इध-उधर देखना एक गलत ‘हैबिट’ है पर मैं इस ‘आदत’ की मरीज हूं...। वहां
बैठकर तरह-तरह के लोगों की जिन्दगी का एक हिस्सा बनी..। एक लोवर मीडिल क्लस
फैमिली दूर टेबल पर बैठइकर कुछ खा रही थी....उनके पास ही एक औरत नाक तक घूंघट किए
बच्चे को छाती से लगाए टहल रह थी....कुर्सी पर बैठा इंसान शायद उसका पति रहा
होगा। जो बार-बार उसे कुछ समय और रुक जाओ का आश्वासन देकर बार-बार थाली में ध्यान
केंद्रित कर ले रहा था.. । लगभग 20 मिनट बाद जब वह उठा तब कहीं जाकर उस औरत ने
उस बची-खुची थाली का स्वाद लिया..। दूसरी ओर एक ऐसा परिवार भी था जो केवल खाने
के लिए ही आया था....वहां मौजूद लगभग हर कॉर्नर उन्होंने थाली उठाई.. कुछ खाया
..कुछ गिराया और कुछ बहाया..। एक बात गौर की ऐसी जगहों पर “राज्यवाद” कुछ मंदा पड़ जाता है..
लोग अपना प्रांत छोड़कर दूसरे प्रांत को तवज्जो देते हैं.. जहां “मराठा मानुस भी लखनवी
नवाब” का बनने से गुरेज नहीं करता..। वहीं एक न्यूक्लियर
फैमिली सारी जगहो के मेनू कार्ड बटोरे यह फेसला करने की कोशिश कर रही थी कि यहां खाना सही रहेगा या नहीं.. शायद कीमत की वजह से..। बाद में छोले-भठूरे का
पेमेंट भी उन्होंने कार्ड से किया..। एक छोटी सी बच्ची शायद 6 साल की रही
होगी... ऑलमोस्ट मनीष मल्होत्रा के डिजाइन किए कॉस्टयूम में इधर से उधर तितली
की तरह मंडरा रही थी..। मां-बाप को आश्वासन देती हुई कि आप बैठो.. मैं ऑर्डर लेके
आती हूं..। कभी चम्मच लाती..कभी टीशू पेपर..। हर बार उसकी चाल एक नई अदा से
लचकती....जैसे कोई हिरोइन..वैसे वो खुद को किसी हिरोइन से कम भी नहीं समझ रही
थी..। लड़कियों का एक समूह ऐसा भी था जिनमें छोटेस्ट कपड़े पहनकर मॉल आने की
होड़ सी दिखी..। पर सबसे मजेदार था वो परिवार जो अपने बच्चों को विदेसिया
रंग में रंगने के लिए जी-जान से जुटेपड़े थे..बच्चों की फरमाइश पराठे थे पर वो
उन्हें कॉर्न सूप पीने के लिए मजबूर कर रहे थे..बच्चे से बर्दाश्त नहीं हुआ और
परिणाम आस-पास के लोगों को भी भुगतना पड़ा....अपनी अपनी कुर्सी पीछे खिसकाते हुए
सबकी त्योरियां मां-बाप को कोस रही थी..। इसी बीच मेरे तथाकथित सस्ते पकौड़े
समाप्त हो गए और आने वाला भी आा गया..पर पहली बार इंतेजार बेमतलब नहीं लगा..।
बहुत कुछ देखा समझा और जाना कि एक ही छत के नीचे कितनी तरह की मानसिकता मौजूद है..जो
कहीं न कहीं उनकी इन आदतों से परलक्षित हो रहा था।
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6 comments:
रोचक माल कथा!
एक साथ कई रंग दिख जाते हैं मॉल में !
खरीददारी और खाना पीना एक साथ नहीं तो सिर्फ देख लेने मे भी हर्ज़ नहीं !
मॉल मालामाल लोगों के लिए बनते जा रहे हैं। 100 रू के चार पकोड़े? शब्द चित्र अच्छा प्रस्तुत किया है।
मॉल मालामाल लोगों के लिए बनते जा रहे हैं। 100 रू के चार पकोड़े? शब्द चित्र अच्छा प्रस्तुत किया है।
बातों को कहने का आपका अंदाज़ अच्छा लगा.. शायद पहली बार आया आपके ब्लॉग पर... अच्छा लगा...
माल लोकतांत्रिक समाज के लिए रामराज्य हैं -मंदिरों से भी श्रेष्ठ ,जहाँ किसी का प्रवेश प्रतिबंधित नहीं और मुफ्त का ऐ सी का आनंद और ऐसा कोई प्रतिबन्ध भी नहीं कि घुसे हैं तो खाना ही पड़ेगा .....शेर बकरी सब एक घाट ...एक सरीखा अम्बियेंस ....आप भी बिना पकौड़े पे फालतू पैसा खर्च किये वहां रह सकती थीं -सारी फार योर लास ऑफ़ अ हंड्रेड रूपी! :-) मुझ जैसा कोई मूरख हो तो वहां पहुंचे सर्वहारे बच्चों को कुछ खिला भी दे...एक मियाँ आजम का जिक्र कभी अपने ब्लॉग पर किया था ....
माल ही नहीं अपने लेखन की ऐसी ही मौलिकता विविध विषयों पर बनाए रखिये ....बढियां लिखती हैं ..हांडी के दो चावल आज हो गए जबकि एक ही काफी होता है :-)
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