हर त्योहार पर बचपन बहुत याद आता है। जब इस बात की चिंता नहीं थी कि ऑफिस नहीं गए तो इमेज खराब हो जाएगी, सेलरी कट जाएगी...वगैरह-वगैरह। त्योहार बस त्योहार हुआ करते थे..जब पापा को सामानों की लिस्ट पहले ही थमा दी जाती थी बिना यह सोचे कि महीने का अंत है और पैसे होंगे भी या नहीं...। समझ ही नहीं थी इतनी...। पापा भी सालभर का त्योहार मान हर जायज और कुछ नाजायज मांग पूरी करते थे। आज बचपन की वो तमाम यादें खुद ही जिंदा हो गई हैं जब सुबह से ही मेला जाने तैयारी शुरू हो जाती थी...। गाजीपुर के आस-पास रहने वालों को मालूम होगा, छोटे शहरों के त्योहार का रंग।
दिल्ली-नोएडा में तो कोई त्योहार कब बीत जाता है..हवा तक नहीं लगती। पर ये शहर बदलने से ज्यादा उम्र और समय बदलने का नतीजा है..। पर फिर भी गाजीपुर की बात कुछ और थी। नवमीं के पहले दिन से "नीमवा के डाली मइया डाले लीं झूलउवा" गीत से लेकर रावण वध तक सबकुछ कितना सिलसिलेवार और रंगीन होता था।
आज शायद ही कोई बच्चा नीलकंठ देखने के लिए दिनभर पेड़ों पर नजरें जमाए रखता होगा...वीडियो गेम के कॉन्ट्रा को मारने से फुर्सत जो नहीं है..। दिनभर की खोज के बाद घर में मौजूद सबसे बड़ा झोला ही शाम के लिए तैयार किया जाता था। जो लौटते समय मिट़टी के खिलौनों से भरा होता था। गर्दन हिलाने वाले बुढ़वा-बूढ़ी, चूल्हा-चाकी, हाथी-घोड़ा....फिरकी, लट़टू और ना जाने क्या-क्या। खाने-पीने के नाम पर गोलगप्पे हमेशा से ही सर्वसुलभ रहे हैं...।
सुनकर हंसी आए पर लंका के मैदान में पत्थर पर बैठे रामलीला के किरदार उस समय साक्षात भगवान ही लगते थे...। उनके लिए मालाएं खरीदते थे...उनको जो भोग लगता था उसे प्रसाद तुल्य मानकर सिर-माथे लगाकर स्वीकार किया करते थे। आज ये सबकुछ नहीं है...अपने ही इन बीस सालों की जिंदगी में लगता है दूसरा जन्म हो गया है...जहां वो पुराने सामाजिक संबंध नहीं हैं..हैं भी तो उनमें उमंग नहीं है...रंग नहीं है। पर शुक्र है ईश्वर ने यादें सजोने की ताकत दी है क्योंकि अब ज्यादातर त्योहार तो उन्हीं के भरोसे मनते हैं...
11 comments:
दिल्ली-नौएडा में भी त्यौहार तो ज्यादा चाव से मनते हैं लेकिन ये त्यौहार थोड़े दूसरी तरह के हैं, बाशिंदे भी तो दूसरी तरह के हैं। पारंपरिक त्यौहारों की वजह से कभी पानी पर खतरा मंडराने लगता है और कभी दूध खोया मिलावटी होने लगता है, कर्टसी सरकारी विज्ञापन, सरकारी फ़रमान, सरकारी.., इसलिये मजबूरी में इधर न्यू ईयर, वैलंटाईन डे वगैरह-वगैरह मनाये जाते हैं।
नई पीढ़ी की यादों में क्या रहेगा, जमीन पर बैठकर रामलीला देखना या कोन्ट्रा\मारियो?
सच कहा आपने कि आज कल त्योहार बस यादों के सहारे मानते हैं लेकिन ये यादें तो बड़ों के जेहन में ताज़ा है। अफसोस तो आज के बच्चों की किस्मत पर होता है जो वीडियो गेम और अन्य आधुनिकता के इस दौर में त्योहार के असली मज़े से वंचित हैं।
सादर
आपको सपरिवार विजय दशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ!
सादर
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 25-10 -2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....
फरिश्ते की तरह चाँद का काफिला रोका न करो ---.। .
छोटे शहरों में मध्यमवर्गीय परिवार जीवन का जो रंग आज भी देख पाते हैं वे महानगरों के लोग नहीं महसूस कर पाते। जिसने तीज त्यौहार पर गांव, कस्बे या छोटे शहरों का स्वाद नहीं चखा वे इसके सुख को महसूस ही नहीं कर सकते। जो यहाँ से उखड़कर महानगरों की चकाचौंध में रम गये उन्हें यहाँ की यादें बार-बार सालती हैं। कम शब्दों में ही हृदयस्पर्शी लिख दिया आपने।
वाकई अब ये त्योहार बीते समय की बात ही लगते हैं
इस पोस्ट पर मैंने अपने विचार भी दिये थे। संभव है मेरी टिप्पणी स्पैम मे चली गयी हो। एक बार चेक कर लें।
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तुमने नीलकंठ याद दिलाया ...इस आपाधापी में दिमाग से ही निकल गया था एक दिन दशहरा भी निकल जायेगा ... मेरे पति का ऑफिस खुला था ...यानि ये नौकरी अब त्योहारों को मनाने नहीं देगी . मैंने फर्रुखाबाद में रावण के रथ पर बैठकर कई दशहरे मनाये है
ऋतु परिवर्तन के समय 'संयम 'बरतने हेतु नवरात्रों का विधान सार्वजनिक रूप से वर्ष मे दो बार रखा गया था जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर 'अथर्व वेद 'पर अवलंबित था।नौ औषद्धियों का सेवन नौ दिन विशेष रूप से करना होता था। पदार्थ विज्ञान –material science पर आधारित हवन के जरिये पर्यावरण को शुद्ध रखा जाता था। वेदिक परंपरा के पतन और विदेशी गुलामी मे पनपी पौराणिक प्रथा ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। अब जो पोंगा-पंथ चल र
हा है उससे लाभ कुछ भी नहीं और हानी अधिक है। रावण साम्राज्यवादी था उसके सहयोगी वर्तमान यू एस ए के एरावन और साईबेरिया के कुंभकरण थे। इन सब का राम ने खात्मा किया था और जन-वादी शासन स्थापित किया था। लेकिन आज राम के पुजारी वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना यू एस ए के हितों का संरक्षण कर रहे हैं जो एक विडम्बना नहीं तो और क्या है?
सच कह रही हैं -मन कितना गृह विरही हो उठता है न :-(
बेहद भाव पूर्ण मार्मिक यादें जीवंत कर दी आपकी
इस भाव पूर्ण रचना ने ..कहाँ गए वो मेले झूले चर्खियां ...गुब्बारे गुडिया के बाल ...हंसी ठिठोली बेहद अपनापन माटी की सुगंध ... कितने बनावटी हो गए हम..............
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