पूजा की आसनी पर बैठी, तो लगा की अम्मा पास ही बैठी है. सिर पर आंचल रखे, ख़ासतौर पर पीली साड़ी पहने, दोनों हाथों को पैर के बीच में जोड़े.
आज से करीब तीन साल पहले, वो दिल्ली रहने आई थी. उस वक्त बुआ की शादी नहीं हुई थी और हम मुखर्जी नगर के परमानंद इलाके में रहते थे. अम्मा आई तो अपने सारे ढेर सारे भगवान लेकर आई. जितने भगवान, उतनी ही आरती की किताबें, चालीसा, रोरी, चंदन, घी वाली बत्ती, अक्षत, किशमिश, चना, गुड़, काला तिल, गंगाजल और कुछ एक-दो और सामान...
एक छोटा सा नारंगी रंग का झोला था, जिसमें भगवान का ये सारा सामान भरा होता था. पूजा के सामान अम्मा सब कुछ सज देती और पूजा पूरी करने के बाद सबकुछ समेटकर झोले में डाल देती.
जब अम्मा आई तो उस समय तक घर में भगवान के लिए कोई जगह नहीं थी. अम्मा का कहना था, इतने बड़े घर में खुद रह रही हो और भगवान के लिए एक कोना भी नहीं है.
धीरे-धीरे अम्मा ने अतिक्रमण करके हमारी किताब वाली आलमारी का पहला खाना हथिया लिया और वो पूजा घर न सही पर पूजा-खाना बन गया.सारे भगवान थे. शायद मक्का की भी एक तस्वीर थी, बुआ को किसी ने दी होगी. वो तस्वीर भी स्वर्ण मंदिर के साथ उसी खाने में थी. अम्मा सबको चंदन लगा देती थी.
हर रोज़ हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती, गणेश चालीसा, गायत्री चालीसा और शिव चालीसा का पाठ करती थी. मज़ेदार बात ये थी की अम्मा पढ़ी-लिखी नहीं थी. लेकिन हम बच्चों के साथ रह-रहकर अक्षर जोड़कर पढ़ लेती थी. लेकिन चालीसा पढ़ने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती थी.
वो पन्ने पलटती थी लेकिन सिर्फ पलटने के लिए, वो सारे ग्रंथ, उसने सुन-सुनकर याद कर रखे थे. उस बार अम्मा करीब दो महीने रही. एक दिन ऐसे ही बात शुरू हुई तो अम्मा ने बृहस्पतिवार की कथा करने का प्रपोज़ल रख दिया.
देव गुरू प्रसन्न होते हैं. विद्या और धन-धान्य से पूर्ण करते हैं...ना-ना प्रकार के किस्से सुनाए और हामी भरवा ली. तय हुआ की हर गुरूवार को कथा होगी. किताब पढ़ने की जि़म्मेदारी मेरी.
गुरूवार का दिन आया. अम्मा को दुनिया की आधी बीमारियां थी लेकिन फिर भी अपने मरने के एक दिन पहले तक वो जितना हो सकता था, सारा काम करती रही. उस गुरूवार को अम्मा पांच बजे ही उठ गई. खुद उठी, पूजा का सारा सामान सजाया और उसके बाद मुझे नींद से जगाया. नेहा उठ...जो नहा ले...कहानी कहे के बा न. साबुन जिन लगइह...खाली पानी से नहा लिह...सरफ से कपड़ा मत धोइह...
इतनी सारी बातों को समझने के बाद नहाने गई. नहाकर निकली तो अम्मा बोली कौउनो पीर कपड़ा पहिर ल...उसके बाद हम पूजा करने बैठ गए.
अम्मा चुपचाप कहानी सुनती, बीच-बीच में कुछ -कुछ करती रहती. कभी दीया ठीक करती, कभी अक्षत हाथ में थमाती...कभी कुछ. कई बार कहानी पढ़ने में देर होने लगती तो मैं एक दो कहानियों का बंक मार देती लेकिन अम्मा को शक़ हो जाता. पूछती, आज उ लीलावती वाला कहनी ना कहलू ह का...और मैं तुरंत मुस्कुरा देती.
वो समझ जाती की मैंने गोला दिया है...बुआ साथ नहीं बैठती, पर कहानी सुनती रहती थीं. हर बार पूजा ख़त्म होने पर कहती, अम्मा रे, इ भगवान हउंव की कुछु और...हर बतिये पर शाप दे देवे न...
अम्मा को ये सब सुनना कभी अच्छा नहीं लगता और वो बोलती, चला इह कुल चलल आवत बा...तोहन लोगन के त कुछु मनही के ना ह...
आज खुद से ये पूजा की...अम्मा को याद करते हुए...आज अगर वो होती और मैं फोन पर उनको ये बताती तो वो कहती, चल...नीक कइलू, भगवान तोहके खूब खुस रखें...हमार बछिया के कौनो दुख मत देवें..
1 comment:
Om namo narayanay namah...
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