Tuesday, August 16, 2011

टीवी पर दि‍खने का नहीं, रोटी खाने का है सपना.....


बड़े प्‍यार से वो अपने नाक की सफाई कर रहा था। कभी 360 डि‍ग्री में घुमाता तो कभी कि‍सी कोण पर रूककर खुरचने लगता। ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर कुछ मि‍ल जाने सा भाव था। लेकि‍न कुछ खाने को...? सोच भी नहीं सकती थी। उसने धीरे से अपनी उंगली मुंह में डाल दी, और ऐसा करने वाला वो अकेला नहीं था। दीपक भी एक कोने में छि‍पकर इसी काम को अन्‍जाम दे रहा था लेकि‍न ऐसा करते हुए दोनों में से कोई भी असहज नहीं था। उसके लि‍ए ये कुछ ऐसा ही था जैसे हमारे लि‍ए फ्रीज से नि‍कालकर फल खाना। दीपक, मेरे घर काम करने वाली का बेटा है।
आजकल बेरोजगार हूं और बेरोजगारी के दौर का मज़ा ले रही हूं और सच कहूं बस पैसे नहीं मि‍ल रहे हैं, नहीं तो काम... काम मैं पहले से ज्‍यादा करने लगी हूं। रातभर जगना, सुबह सोना, सास-बहू को नि‍पटाना, दोस्‍तों से गपि‍याना और एकमात्र अच्‍छा काम, घरों में काम करने वाली बाइयों के बच्‍चों को पढ़ाना।
घर के सामने ही एक अच्‍छा-खासा पार्क है और वीराने में ना होने से अधि‍कतर खाली ही रहता है और अपने दुर्भाग्‍य पर रोता रहता है। कि‍सी सुनसान इलाके में होता तो प्रेमी-प्रेमि‍का के जोड़ों से भरा होता लेकि‍न यहां तो ठीक इसका उलट है। सबेरे-सबेरे छोले-भटूरे की चर्बी कम करने के लि‍ए कुछ प्रौढ़ महि‍लाएं पार्क में चक्‍कर लगाती दि‍ख जाती हैं और कुछ बूढ़े लाफ्टर थैरेपी पर हंसते, नहीं तो अक्‍सर ये पार्क खाली ही रहता है और आजकल यही खाली पार्क मेरा स्‍कूल है।
कुल सात-आठ बच्‍चे हैं और मैं उनकी मैडम। मैडम नहीं, मैडम जी। इन बच्‍चों को पढ़ाते-पढ़ाते, हर रोज कुछ नया सीख पा रही हूं। महसूस कर रही हूं कि‍ जि‍स देश की अखण्‍डता की दुहाई देते हम थकते नहीं हैं असल में वो दो पाट है। एक वो वर्ग जो आराम से गुजर-बसर कर रहा है और दूसरा वो, जि‍सके ना तो खाने का ठौर है और ना जीने का।
उन सात-आठ बच्‍चों में से शायद ही कोई पढ़ने के लि‍ए आता हो, क्‍योंकि‍ आते ही उनका पहला सवाल होता है, मैडम जी आज बि‍स्‍कुट देंगी या टॉफी। नाक से गन्‍दगी (नकटी) नि‍कालकर खाना उनके लि‍ए कोई अस्‍वभावि‍क बात नहीं है। अपने पि‍ता के शराबी होने की बात भी वो कुछ इस तरह बताते हैं जैसे शराब पीने में कोई बुराई नहीं है। मां का मार खाना, बाप का पैसों को जुए में उड़ा देना, कुछ भी  गलत नहीं है इनके लि‍ए। और हो भी कैसे, आंख खोलने से लेकर समझ आने तक यही सब देखकर बड़े होते हैं ये बच्‍चे।
पहले घर आकर अक्‍सर सोचती थी कि‍ कि‍तने गंदे बच्‍चे हैं ये, कैसे हैं जि‍न्‍हें नहाने के लि‍ए भी टोकना पड़ता है, कहना पड़ता है कि‍ ब्रश करके आया करो और धुलकर कपड़े पहना करो। लेकि‍न अब दो हफ्ते के बाद मानसि‍कता बदल गई है और उनके धरातल पर आकर सोचती हूं तो लगता है कि‍ ये तो वही करते है जो देखते हैं। ना कोई टोकने वाला और ना कोई मना करने वाला और ना ही कोर्ठ समझाने वाला की ये करो, वो नहीं करो, ऐसे करो या ऐसे नहीं करो। जो सीखा खुद से सीखा और उसी को सही मान लि‍या।
मां-बाप ने शायद ही कभी ये सोचा हो कि‍ उन्‍हें अपने बच्‍चों को क्‍या सीखाना है और क्‍या नहीं। लेकि‍न ये मां-बाप का दोष भी नहीं, समय ही कहां है उनके पास। सक्‍सेना जी का ऑफि‍स 8 बजे से है तो मां 7 बजे ही वहां चली जाती है। दोपहर 2 बजे तक एक शि‍फ्ट पूरी करती है तब तक दूसरी शि‍फ्ट शुरू हो जाती है और बाप दि‍नभर मजदूरी करता है तब कहीं जाकर चूल्‍हा जल पाता है। और 10-12 साल का होने पर मां-बाप इन बच्‍चों को भी कहीं काम-धन्‍ध्‍ो पर लगवा देते हैं।
आजकल इन्‍हीं बच्‍चों के साथ समय का सदुपयोग कर रही हूं और वही सारी बातें सीखाने की कोशि‍श कर रही हूं जो हमारे-आपके घर के बच्‍चों की आदत में है। लेकि‍न इसके साथ ही ये भी जान पा रही हूं कि‍ असली भारत की तस्‍वीर वो नहीं जो हम टीवी पर देखते हैं और जि‍से देखकर हम तालि‍यां बजाते हैं। बल्‍कि‍ असली भारत की तस्‍वीर तो ये हैं जहां बच्‍चे भूख और रोटी के आगे कुछ सोच ही नहीं पाते और जि‍न्‍दगी उसी के पीछे मरते-खटते बीता देते हैं।

1 comment:

चंदन कुमार मिश्र said...

भड़ास पर यह लेख पढ़ा। लेकिन आया यहाँ। इस लेख से मीडिया द्वारा दिखाई जा रही तस्वीर का सच सामने आता है। आपका पढ़ाना प्रेरक है।

शब्द सत्यापन यानि वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा दें।

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