Saturday, August 13, 2011

बहुत खास है ये डोर...


रक्षाबन्‍ध्‍ान, एक डोर जो भाई-बहन के पवि‍त्र रि‍श्‍ते के और मजबूत बनाती है....।
आज के दि‍न घर से दूर होना अखर रहा है। पि‍छले एक हफ्ते से छोटा भाई लगातार फोन करके मेरा स्‍टेटस पता करता रहा कि‍ मैं आ रही हूं या नहीं; बहुत छोटा है मुझसे, सो उसे ये नहीं समझा सकती क्‍यों नहीं आ पा रही हूं....।
पता है मुझे, उसने मेरे बगैर रहने की आदत डाल ली है लेकि‍न फि‍र भी उस एक वक्‍त वो रोएगा जरूर...। मोहल्‍ले की कि‍सी और लड़की से राखी भी नहीं बंधवाएगा...और फि‍र मुझे फोन करके आंसू बहाएगा...लेकि‍न वो जानता है कि‍ वो मेरे लि‍ए कि‍तना खास है तो कुछ वादे लेकर चुप हो जाएगा..और भूल जाएगा की उसकी दीदी उसके पास नहीं है। फि‍र खुद ही मेरी भेजी राखी अपनी नन्‍हीं सी कलाई पर बांधकर मुझे बताएगा...। गि‍फ्ट मांगने पर कैडबरी खरीदने का वादा करके खेलने भाग जाएगा....। लेकि‍न मुझे ये एहसास दे जाएगा कि‍ मैं उसके लि‍ए कि‍तनी जरूरी हूं और वो मेरे लि‍ए कि‍तना खास...। जि‍न्‍दगी में यही कुछएक पल ऐसे होते हैं जब आपको आपका होना सार्थक लगता है। सहेजि‍ए इन पलों को, इस रि‍श्‍ते को क्‍योंकि‍ हर रि‍श्‍ते से खास है ये.... राखी की बहुत-बहुत बधाई।
कुछ रचनाएं ऐसी होती हैं जि‍न्‍हें पढ़कर एक जुड़ाव महसूस होता है। भाई-बहन के प्‍यारे से बन्‍धन पर राजेश जोशी की ये कवि‍ता मुझे बहुत पसंद है, भाई-बहन के रि‍श्‍ते का हर रंग है इस कवि‍ता में-
बचपन में जब बहन
अपने ससुराल जाने लगती
तो मैं बाहर जाने वाली सीढ़ि‍यों पर बैठकर बहुत रोता
मैं उसका बक्‍सा पकड़कर लूम जाता और मचलने लगता
मुझे समझाना जब बहुत मुश्‍कि‍ल हो जाता
और डांट का भी मुझ पर कोई असर नहीं होता
तो लालच दि‍या जाता और मैं अक्‍सर उसमें फंस जाता
दो पैसे की पि‍परमेंट की गोलि‍यों के लालच में
मैं नुक्‍कड़ की दुकान तक भाग जाता
और इसी बीच बहन चुपके से तांगे में बैठकर चली जाती
शादी से पहले वो ही मुझे स्‍कूल के लि‍ए तैयार करती
हर दि‍न वह अलग अलग ढ़ंग से मेरे बाल ओंछती
मां ये काम कभी न कर पाती
वो रहती थी तो मुझे पहाड़े लि‍खने में मदद करती
कभी कभी तो वो खुद ही मेरे पहाड़े लि‍ख दि‍या करती
13 के पहाड़े पढ़कर मेरी गाड़ी हमेशा अटक जाती
और उसके बाद के तो ज्‍यादातर पहाड़े कठि‍न होते
गणि‍त वाले महेश माट साहब से मुझे बहुत डर लगता था
वो उंगलि‍यों में पैसिंल फंसाकर
जब उन्‍हें दबाते
तो मेरी चीख नि‍कल जाती
मैं बहुत देर तक अपनी उंगलि‍यां सहलाता रहता
और बहन के चले जने पर तब मुझे और ज्‍यादा गुस्‍सा आता
मैं कभी समझ नहीं पाता था कि
जब सारे लोग घर में रहते हैं
तो एक बहन ही बार बार क्‍यों चली जाती है।
मेरे जन्‍म के बारे में एक कि‍स्‍सा अक्‍स्‍ार सुनाया जाता
जब मैं पैदा हुआ तो चि‍ल्‍ला चि‍ल्‍लाकर
वो ही सारे मुहल्‍ले को बता आयी थी
कि‍ भइया हुआ है
कि‍ उसी ने मेरे पैदा होने पर थाली बजायी थी
वो रहती थी तो लगता था कि‍ मैं सुरक्षि‍त हूं
कि‍सी भी बात पर डांट या मार पड़ने पर
वह कहीं न कहीं से प्रकट हो जाती
और मुझे पकड़कर ले जाती
शुरू में ससुराल जाने से कुछ देर पहले ही
उसका रोना शुरू हो जाता
देहरी पर वो मां के गले लगकर
बहुत जोर से रोती
मां को समझाने वाली स्‍त्रि‍यां बर बार यही कहती
बेटि‍यों को तो जाना ही होता है कि‍ वे पराया धन है
मैं इन वाक्‍यों के बार बार हि‍स्‍से करने की कोशि‍श करता
पर कभी कुछ समझ नहीं पाता
ना जने उसके भीतर इतना रोना कहां छि‍पा हुआ था
कि‍ वह कभी भी रो सकती थी
जबकि‍ सब उसको हंसने पर टोकते रहते थे
दि‍न जैसे जैसे बीतते गए उसका रोना कम होता गया
पता नहीं कब मैंने अपने बाल अपने आप ओंछना सीख लि‍या
कब मैं अपने पहाड़े अपने आप लि‍खने लगा
कब ससुराल बहन का अपना घर हो गया
फि‍र एक दि‍न उसकी गोद में उसका बच्‍चा सोने लगा
फि‍र वो अपने बच्‍चे को स्‍कूल जने के लि‍ए तैयार करने लगी
उसका होमवर्क करवाने लगी
पता ही नहीं चला कि‍ कब मैं उसके बगैर रहना सीख गया
अब एक ही शहर में रहते हुए मैं उससे फोन पर बात करता हूं
कभी कभी बचपन के कि‍स्‍से नि‍कल अने पर वह हंसती और मैं भी
कुछ झेंपता हुआ सा हंसता हूं।
                                                             साभार राजेश जोशी

3 comments:

Anonymous said...

sundar... meri to bahan hi nahi, esliye bachpan mei raakhi ke din rota tha. ab aadat pad gayi hai bin rakhi bin bahan ke jeene ki. ho ho

sumit said...

very good

prashant rai "bittuu" said...

good thoughts........

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