आस्था और अंधविश्वास में एक सूत जितना ही फर्क होता है। जहां आस्था और विश्वास इन्सान को संबल देते हैं, भरोसा करना सिखाते हैं वहीं अंधविश्वास इन्सान को निष्क्रिय और कमजोर बना देता है। ईश्वर में विश्वास करना सही है, क्योंकि ईश्वर के प्रति आस्था मनुष्य की सोच को सकरात्मक बनाती है। लेकिन हाथ-पैर छोड़कर सिर्फ भगवान भरोसे बैठ जाना विश्वास नहीं अंधविश्वास है। कहा भी गया है कि ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गये सबके दाता राम।’ सबकुछ छोड़-छाड़ कर भगवान के भरोसे बैठ जाना ईश्वर में आपके विश्वास को नहीं बल्कि आपकी अकर्मण्यता को बयान करता है। और वास्तविकता भी यही है कि कर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। इन्सान के कर्म ही उसके भविष्य और वर्तमान के लिए उत्तरदायी होते हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने भी कर्म को ही सर्वोपरि बताया है।
लेकिन आज हर कोई शॉर्ट कट के पीछे भागा जा रहा है। हर एक सोचता है कि कैसे कम से कम मेहनत करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा मिल जाए। कम मेहनत करके ज्यादा पाने की यही ललक इन्सान को पाखंडी ओझाओं और बाबाओं के पास ले जाती है। और जैसे ही वो इन ढ़ोंगी बाबाओं की चौखट पर पहला कदम रखता है, अंधविश्वास के दलदल में फंसता चला जाता है। जब तक होश आता है न विश्वास बचता है और न तो कुछ.......।
21वीं सदी का समाज ज्यादा प्रतिस्पर्धी और प्रैक्टिकल है। ऐसे में भावनाओं और संवेदनाओं का स्थान परस्पर प्रतियोगिता ने ले लिया है। कुछ वर्षों पूर्व तक जो कुछ प्राथमिक था आज वही उपेक्षित है। जहां अब तक इन बाबाओं के पास वशीकरण, शादी कराने, तलाक दिलाने, सन्तान सुख दिलाने जैसी बातों के लिए कॉन्ट्रैक्ट लिये और दिये जाते थे अब वहीं इन्होंने अपने पोर्टफोलियों में भी व्यापक बदलाव कर लिया है। आप देख ही रहे होगें कि ग्राहक को फंसाने के लिए कितनी नयी-नयी बातों का उल्लेख है।
अभी तक के बाबा वशीकरण, सम्मोहन जैसी ही कुछ बातों को लेकर अपना धन्धा करते थे लेकिन अब इन बाबाओं ने खुद को इक्कीसवीं शताब्दी के अनुरूप ढ़ाल लिया है और कहते हैं न कि बिजनेसमैन वही सफल है जो बाजार के बदलाव को भांप सके और अपना माल बाजार की मांग के हिसाब से बेच सके। आज इन्सान शादी-विवाह से आगे का सेाचने लगा है । आज उसके लिए नौकरी, प्रमोशन, विदेश यात्रा जैसी बातें ज्यादा जरूरी हो गयी है। और इन्सान की इन्हीं नयी जरूरतों के अनुरूप आज के बाबाओं ने भी खुद के व्यवसाय में एक नये ट्रेंड को जन्म दिया है। इतना ही नहीं आम आदमी भी पूरे विश्वास के साथ अपनी परेशानियों का समाधन इन टोने-टोटकों में तलाशता है। अन्ततः इन्हीं धर्म के व्यापारियों के चक्कर में पड़कर कितनी ही जिन्दगियां तबाह हो जाती हैं। लेकिन सच्चाई तो यही है कि सफलता के लिए कोई शॅार्ट कट नहीं होता है। ईश्वर में आस्था रखना सही है लेकिन कुछ इस तरह, की उससे भरोसा बढ़े ना की अंधविश्वास।
पर सारा दोष किसी एक के मत्थे मढ़ देना भी सही नहीं होगा, सच्चाई ये भी है कि इन ढ़ोंगी बाबाओं के पास जाते भी तो हम-आप ही हैं। आज जबकि दावे किये जाते हैं कि समाज वैज्ञानिक तौर-तरीके अपना रहा है तो क्या कारण है कि इन ढ़ोंगी -पाखंडी बाबाओं की संख्या दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। असल में हमारा समाज साक्षर तो रहा है लेकिन शिक्षित नहीं। साक्षर होकर किताबी ज्ञान तो मिल रहा है लेकिन विकास नहीं हो रहा और कहीं न कहीं यही भटकाव इन बाबाओं को बढ़ावा दे रहा है। ये बेवकूफ बनाते हैं और हम बनते हैं जिससे इनके खर्चे पूरे होते हैं। गांवों में कहा जाता है कि 'जब तक बेवकूफ इस धरती पर हैं चालाक भूखे नहीं मरेगा।’ और यहां बेवकूफ हैं हम। अब हमें ही यह सोचना और निर्धारित करना होगा कि हम चाहते क्या हैं, दूसरों के हाथों बेवकूफ बनना या फिर कर्म प्रधान बनकर आगे बढ़ना है।
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