Friday, August 12, 2011

अमूल बेबी के बोल कब फूटेगें


 रामदेव से लेकर अन्ना और भाजपा तक को कुछ न कुछ मिला... हर बार की तरह इस बार भी ठगी गई सिर्फ जनता : एक बार फिर जनता ठगी-सी खड़ी है. अवाक है और परेशान भी। अवाक, क्योंकि जिन हाथों में उसकी सुरक्षा का दायित्व था, उन्हीं हाथों से उसे ज़ख्म मिले हैं और परेशान इसलिए, कि आखिर वो जाए तो जाए कहां?

बाबा रामदेव ने जब अनशन की शुरुआत की तो, एक आस बंधी थी कि शायद इस बार हम भ्रष्टाचार को कड़ी टक्कर दे पाएं। लेकिन सरकार की दमनकारी नीति ने सब कुछ तितर-बितर कर दिया। इससे पूर्व अन्ना हजारे के आन्दोलन का हश्र भी कुछ ऐसा ही हुआ। हालांकि उनके अनशन पर किसी तरह का हमला नहीं हुआ लेकिन आज तक कोई परिणाम भी नहीं निकला। बैठकों का दौर जारी है और हर बैठक के साथ एक नये विवाद का जन्म भी।
बीते हफ्ते रामदेव के सत्याग्रह ने पूरे देश को एक सूत्रा में पिरोने का काम किया। ऐसा नहीं था कि इसमें केवल बाबा के समर्थक ही मौजूद थे। वे भी थे जो बाबा से भले कोई वास्ता न रखते हों पर देशहित की बात ने उन्हें भी रामलीला मैदान तक पहुंचा दिया। पर अब..... अब ना तो मुद्दे हैं और न ही उनका कोई सरपरस्त। काले धन का मुद्दा तो कभी का पीछे छूट गया है और अगर कुछ शेष है तो नवविवादित जूता काण्ड, सुषमा का नाच, भाजपा का प्रदर्शन, बाबा-भाजपा-संघ का रिश्ता, लाठी चार्ज, सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार। लेकिन जिस विषय को लेकर जनता ने रामदेव बाबा का समर्थन किया था अब उनकी प्रासंगिकता धुंधली हो चुकी है।
सरकार की बात करें तो शायद ‘मौकापरस्त’ ही एक ऐसा शब्द मिले जो इसकी छवि का पर्याय बन सके। ये वही सरकार है और ये वही युवराज जो कभी आम जनता की आवाज बनने का दावा करते हैं तो कभी उनके साथ राज्य सरकार के विरोध में धरने पर बैठ जाते हैं। यही नहीं गिरफ्तारी तक देते हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तो सरकार की पोल बहुत पहले ही खुल चुकी है लेकिन शनिवार को जो हुआ, उसने सत्ता की रावणनीति को पूर्णतः स्पष्ट कर दिया। ‘अमूल बेबी’ तो लगता है बोलना ही भूल चुके हैं और दो दिन बाद जब प्रधनमंत्री के बोल फूटे तो बड़े ही नपे-तुले शब्दों में या यूं कहें कि डिक्टेटेड शब्दों में उन्होंने कहा कि हमारे पास कोई और चारा नहीं था। देश के प्रधनमंत्री की इस लाचारी पर तरस तो नहीं, गुस्सा जरूर आता है।
कहावत है कि ‘‘जाकै काज तेही को साजै और करे तो डंडा बाजै’’ लेकिन वरद हस्त की छाया में वे तो सुरक्षित है और डंडे की चोट पर है मासूम जनता। अगर सत्ता का ये हाल है तो विपक्ष भी पीछे नहीं है। गुमनामी के अन्धेरों में लगभग खो-सी गई भाजपा को भी टीवी स्क्रीन पर चमकने और अखबारों में हेडलाइन बनने का मुद्दा मिल गया है। उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और अब तक कोई ठोस मुद्दा ना होने के कारण भाजपा बुझी-बुझी नजर आ रही थी। लेकिन सत्याग्रह के मुद्दे ने उनमें भी नवसंचार कर दिया है। विपक्ष जनता की सोचने लगा है, और उसके लिए राष्ट्रपति तक से गुहार लगाने लगा है लेकिन ये नहीं कह सकतें कि ये सच्चाई है या ढोंग। जो भी हो एक सक्रीय विपक्ष नजर आने लगा है। पर यहां भी राजनीति ही हावी है और स्वयं का हित ही प्राथमिकता बना हुआ है।
रही बात अन्ना एण्ड पार्टी की तो, जो आवाज जन्तर-मन्तर से बुलन्द हुई अब चारदीवारी में ही दबकर रह गयी है। जब अन्ना ने अनशन शुरू किया था तो लगा कि देश में बदलाव की बयार आ गयी है और निश्चित तौर पर अब कुछ होकर रहेगा, लेकिन तमाम बुद्धजीवियों को ठेंगा दिखाते हुए अन्ततः सरकार वही कर रही है जो वो चाहती है।  अन्ना के चरित्र पर किसी को कोई शक नहीं लेकिन आपसी मतभेदों और सरकार की चालों में फंसकर अन्ना की टीम ने खुद ही अपनी मिट्टी-पलीद करवा ली है। कहीं न कहीं जनता का मोहभंग तो हुआ ही है और इसके लिए परिणामों से कहीं ज्यादा अन्ना और उनकी टीम की जल्दबाजी और अधूरी तैयारी जिम्मेदार है।
अब बात रामदेव के सत्याग्रह की। रामदेव ने सत्याग्रह तो बड़ी ही तैयारी से शुरू किया, और जब सत्ता के चार आला नेता उनके सम्मान में नतमस्तक दिखे तो लगा कि शायद इसबार काले धन का मुद्दा सुलझ जाए लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जो हुआ वो आपके और हमारे सामने है। रामदेव का अन्धानुकरण न करते हुए अगर सोचें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि रामदेव को पहले ही अपनी सम्पत्ति का खुलासा कर देना चाहिए था और वैसे भी सांच को आंच क्या। अगर वे सच्चे हैं तो पहले या बाद में का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और यदि उन्होंने किसी पत्र पर सहमति दी है तो उसका खुलासा, साफ-साफ तौर पर जनता से करते।
उन्हें क्यों ऐसा लगा कि ऐसा करने से वे कमजोर पड़ जाएंगे या जनता उनका साथ नहीं देगी? जो जनता भरोसा करके अपना कामधाम छोड़, भूखे-प्यासे आपके साथ खड़ी है क्या वो सच जानकर आपका साथ छोड़ देती? जनता रामदेव के साथ आयी क्योंकि ये मुद्दा उससे जुड़ा था और बाबा उसके लिए आवाज बुलन्द कर रहे थे, लेकिन कहीं न कहीं रामदेव ने बात छिपाकर जनता को छला तो है ही। अब सब कुछ सामने आ चुका है, शेष है तो सिर्फ राख के ढ़ेर पर पत्थरबाजी करने का दौर।
सरकार को जो करना था उसने किया और आज भी बिना किसी की परवाह किये वही कर रही है जो उसे करना है। भाजपा जिन टर्निंग प्वाइंट्स की खोज में थी वो उसे रामदेव के सत्याग्रह के रूप में बैठे-बिठाए मिल गया। अन्ना एण्ड ग्रुप को जो चाहिए था वो उसे मिला भी और खो भी गया। रामदेव को राजनीति में आने का रास्ता मिल गया और मुद्दा धुंआ हो गया, कल तक गर्मी दिखाने वाले बाबा आज केन्द्र को माफी देते नजर आ रहे हैं लेकिन जनता.....? जनता आज भी वहीं है जहां कल थी। आज भी भ्रष्टाचार उसी का निवाला छीन रहा है और सरकार भी उसी की गर्दन दबोच रही है। शनिवार के काण्ड ने उसके मन में रोष तो भरा है लेकिन साथ ही एक झिझक भी। झिझक, कि क्या उसे अब किसी आन्दोलन का हिस्सा बनना चाहिए? लेकिन अब अगर हम चुप रहे तो लाठियों की जगह गोलियां ही चलेंगी।
अब हमें ही ये समझना होगा कि वास्तव में ये हमारे हक की ही लड़ाई है और हमें ही इसकी कमान सम्भालनी होगी। अपने-अपने स्तर पर इस भ्रष्टाचार को दूर करने का प्रयास करना होगा और इसे अपनी आदत में शुमार करना होगा क्योंकि वार्षिक उत्सव के तौर पर मनाये जाने वाले इन आन्दोलनों का हश्र हम सबके सामने है। आने वाले कुछ दिनों में एक बार फिर सबकुछ सामान्य हो जाएगा। बाबा पतंजलि में ध्यान रमा लेंगे और राजनीतिक दल चुनावों में, लेकिन हमारा क्या? हमारे मुद्दों का क्या? वो तो आज भी जस के तस बने हुए हैं और अब अगर हमने कुछ नहीं किया तो संभव है ये धोखेबाज देश के साथ-साथ हमें भी बेच खाएं। तो इससे पहले की बहुत देर हो जाए आज से ही अपने स्तर पर भ्रष्टाचार की लड़ाई की शुरुआत करें।

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