Friday, September 02, 2011

खाली हो क्‍या भइया....


उसके लि‍ए ये नया नहीं होगा, हर रोज़ वो ऐसी ही गालि‍यां सुनता होगा और गरीब होने के नाते अपनी गलती ना होने पर भी डरता होगा।
उस दि‍न एफएम में मॉर्निंग शि‍फ्ट थी, सुबह 7:30 तक हर हाल में स्‍टूडि‍यो पहुंचना था। आंख खुली लेकि‍न घड़ी देखकर मुंह भी खुला रह गया, सात बज चुके थे। आव देखा न ताव बाथरूम में घुस गई, तैयार होते-होते करीब 7:30 हो गए थे। एक सेब हाथ में पकड़कर दौड़ती हुई सड़क पर आ गई। दो रि‍क्‍शे वाले मोड़ पर ही खड़े दि‍ख गए, एक बूढ़ा और दूसरा जवान। पता नहीं कब और कैसे ये आदत बन गई कि‍ बूढ़े रि‍क्‍शेवाले के रि‍क्‍शे पर बैठना बुरा लगता है, आत्‍मग्‍लानि‍ सा भाव उठने लगता है मन में।
खैर पूछा भइया खाली हो और उसके मूक हां के बाद बि‍ना पैसे तय कि‍ये रि‍क्‍शे पर इस अनुरोध के साथ बैठी ‘’भइया प्‍लीज़ थोड़ा जल्‍दी ले लेना’’। रि‍क्‍शा थर्ड गि‍यर में चल रहा था, गाने के साथ। गाना भी ऐसा वैसा नहीं था, फि‍ल्‍म नाम का सबसे फेमस गाना चि‍ट्ठी आई है फुल वाल्‍यूम में। गाना अच्‍छा था तो मैंने अपनी ठेंपी (ईयरफोन) को बैग में ही छोड़ दि‍या। गाना खत्‍म होते ही, दूसरा गाना शुरू हो गया, तुम-सा कोई प्‍यारा कोई मासूम नहीं है.... बहुत दि‍न बाद सुनने को मि‍ला, अच्‍छा लग रहा था।
तभी मेरा फोन बज उठा, अम्‍मा (दादी) का फोन था। पूरी बातचीत भोजपुरी में ही थी जि‍सने रि‍क्‍शे वाले को ये पूछने पर मजबूर कर दि‍या कि‍ कवन जि‍ला के (कि‍स जि‍ले से हूं मैं)। बताया मऊ के। जवाब से उसका मनोबल जरूर बढ़ गया था तभी उसने अपना पूरा डाटा मेरे सामने रख दि‍या। आरा जि‍ला का रहने वाला था वो, 14 साल का था तो अपने चच्‍चा के साथ दि‍ल्‍ली आया था। साल में एक बार जाता है छठ के समय। नरेन्‍द्र ने बहुत ही खुशी से बताया कि‍ उसकी शादी हो चुकी है और दुई ठे बि‍टि‍यो हैं।
कई बार बोली की समानता आपको अपरि‍चि‍तों के साथ भी  परि‍चि‍त बना देती है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उसकी बातें अच्‍छी लग रही थीं, बनावटी नहीं थीं, अपनापन था। बातों-बातों में उसने बताया कि‍ हर महीने पैसा नहीं भेज पाता है, बचता ही नहीं है, वो खुद भी बड़ी मुश्‍कि‍ल से दो वक्‍त खा पाता है। अभी-अभी बीमारी से उठा है, पीलि‍या हो गया था, बड़ा पइसा लग गया।
बातों में ही ना जाने कब एफएम बि‍ल्‍डंग आ गई। पैसे पकड़ाते वक्‍त उसने बस इतना ही कहा, अपने ओर क अदमी अपने होलअ। 7:48 हो गए थे स्‍टूडि‍यो में को-एंकर को देख सांस में सांस आई। दोपहर करीब दो बजे प्रोग्राम खत्‍म हुआ। फटाफट झोला-डण्‍डा टांग बाहर नि‍कल आई। कुछ दूर चलते हुए ही आ गई, रि‍क्‍शे वाले को पूछा भइया खाली हो, भाई परमानन्‍द चलोगे, बोला हां और मैं लपककर बैठ गई। रास्‍तेभर उसकी मैली शर्ट, जि‍से कोई माई का लाल साफ कर तो दे। तरह-तरह के डि‍टर्जेन्‍ट पाउडर वालों की वो शर्ट अकेले ही छुट्टी कर देती। एक बरमूडा जि‍सकी हालत भी कुछ-कुछ शर्ट सी ही थी। एक टूटी हुई रबर की चप्‍पल जो धूप में वार्मर बन जाती होगी। पसीना पोछते वो मुझे ढोए जा रहा था। कई बार रि‍क्‍शे पर बैठना भी असमंजस में डाल देता है। एक ख्‍याल तो आता है कि‍ बैठना चाहि‍ए, यही तो इनकी रोजी-रोटी है और दूसरा की कैसे आप तानाशाह जैसे पीछे बैठ सकते हैं। रि‍क्‍शे के एक कोने में पानी की बोतल बड़ी खूबसूरती से बोरे में सि‍लकर रखी हुई थी। पसीना पोछते और मुझे ढोते, रि‍क्‍शा बस घर पहुंचने ही वाला था कि‍ एक बाइक से टक्‍कर हो गई। बाइक पर एक प्रेमी जोड़ा हवा से बातें करता जा रहा था और ट्रैफि‍क सि‍ग्‍नल देखना भूल गया था। गलती मानना तो दूर, उल्‍टे दोनों रि‍क्‍शे वाले पर ही चढ़ बैठे, मां-बहन और इससे मि‍लते-जुलते सारे अलंकरण रि‍क्‍शे वाले को दे डाले। प्रेमी महोदय का खून तब और उबाल मारने लगा जब उनकी प्रेमि‍का का उह-आउच का क्रंदन शुरू हो गया। बोलना नहीं चाहती थी लेकि‍न बोलना पड़ा। समझ में तो उन्‍हें क्‍या आया होगा लेकि‍न बात बि‍गड़ती देख दोनों वहां से नि‍कल गए।
घर पर आकर बहुत देर तक उसी के बारे में सोचती रही, कि‍तनी गालि‍यां सुनी उसने, वो भी बि‍ना बात के, बि‍ना गलती के। लेकि‍न उसके लि‍ए ये नया नहीं होगा, हर रोज़ वो ऐसी ही गालि‍यां सुनता होगा और गरीब होने के नाते अपनी गलती ना होने पर भी डरता होगा। हर रोज हम-आप ही उसे बेइज्‍जत करते हैं, जि‍तना भी मोल-भाव करना होता है इनसे ही करते हैं और कई तो बि‍ना दि‍ये भी चलते बनते हैं। लेकि‍न इसके बि‍ना गुजारा भी संभव नहीं है। हालांकि‍ अब लगभग सभी के पास अपने साधन हैं फि‍र भी तंग गलि‍यों में तो रि‍क्‍शा ही राज करता है इस सच्‍चाई को जानने के बावजूद...... ये सब हो रहा है। ऑटो वालों, बस वालों, कार वालों सभी के लि‍ए सरकार के पास नीति हैं लेकि‍न रि‍क्‍शेवालों के लि‍ए.... शायद नहीं और सरकार ही क्‍या हम-आप भी उतने ही जि‍म्‍मेदार हैं उनकी इस हालत के लि‍ए। रोज़ रि‍क्‍शे पर बैठते तो हैं पर शायद ही कभी उनके लि‍ए सोचा हो, ये सही है कि‍ इनकी जरूरतों को नीति‍गत सुवि‍धा देना सरकार का काम है लेकि‍न समाजि‍क स्‍तर पर.... ये हमारी और आपकी जि‍म्‍मेदारी भी तो है। अंग्रेजों के ज़माने में भौति‍कता का पर्याय रि‍क्‍शा, आज गरीबी की पहचान बन चुका है और रि‍क्‍शावाला मुफ्त की गाली खाने वाला, गूंगा-बहरा..... जबकि‍ ये समाज का वो वर्ग है जि‍सके चलते रहने से हमारे और आपके जीवन में भी गति‍ है।                     

4 comments:

चंदन कुमार मिश्र said...

ओह!

चंदन कुमार मिश्र said...

बेचारे यही बार-बार गाली सुनते हैं। चार पैरों वाले जानवर तो और अधिक हीरो बनते हैं। वहीं लगता है कि किसी बाइकधारी कुक्कुरों से इनका पाला पड़ ही जाता है। समरथ को नहीं दोस…

Devashish said...

nice observation.... apni bhawnao ko prastut karne mein aapne koi kasar nahi chodi... aaj k zamane mein itna sochne wala bhi koi nai hai... agar sochte bhi hain toh kuchh karne wala koi nahi...

विवेक राय said...

१-हर जगह कौटिल्य का मत्स्य न्याय है ..यानि की बलवान हमेशा कमजोर को दबाने की कोशिश करता है.
२-भोजपुरी की मिठास तो अब सयुंक्त राष्ट्र तक पहुच गई है.बंगाली, मराठी , तमिलो की तरह भोजपुरी भाषियों को कम से कम आपस में तो भोजपुरी में बात करनी हि चाहिए .
३-हमारा जिला मऊ एक एतिहासिक जिला है .श्याम नारायण पाण्डेय (हल्दी घाटी ) का जिला है.
४- वैसे आप मऊ में कहा से हो.

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