फेसबुक से लेकर तमाम मीडिया पोर्टल हिन्दी दिवस की शुभकामनाओं से पटे पड़े हैं। तरीका सबका अलग है, किसी ने राष्ट्रध्वज पर लिख रखा है तो किसी ने भारत के नक़्शे के साथ। लेकिन तमाम दिखावटी विषमताओं से इतर इन लेखों में भावनात्मक और शाब्दिक समानता भी है।
सभी ने जमकर अंग्रेजी को गालियां लिख रखी हैं...कई ने तो अंग्रेजी बोलने वालों को भी। औसतन हर लेख में अंग्रेजी को दुत्कार कर, कोसकर, हिन्दी को श्रेष्ठ बताने और बनाने का प्रयास किया गया है। कुछ ने कसमें भी खा ली हैं कि वो आज से हिन्दी ही ओढ़ेगें और हिन्दी ही बीछाएंगे और ऐसी ढ़ेरो बातें......।
वैसे ये सबकुछ पहली बार नहीं है, सो ज्यादा अचरज नहीं हुआ। लेकिन हर बार वही फण्डा; अंग्रेजी को नीचा दिखाओ, हिन्दी का कद बढ़ाओ। लकीर को छोटा दिखाने के लिए, बड़ी लकीर खींचने का बीड़ा किसी ने नहीं उठाया। दो बात कहना चाहती हूं... पहली तो ये कि हिन्दी का विकास अंग्रेजी को कोसकर, नहीं हो सकता। जो लैंग्वेज यूनीवर्सल हो, आप उससे मुंह नहीं मोड़ सकते। दूसरी ये कि अंग्रेजी तो फिर भी बाहरी भाषा है, लेकिन हिन्दी को जितना खतरा देश की अन्य उप-भाषाओं और बोलियों से है उतना अंग्रेजी से भी नहीं।
आज हिन्दी के सामने हिन्दी वाले ही दीवार बनकर खड़े हो गए हैं, क्षेत्रवाद का समर्थन करने वाले, संकीर्ण मानसिकता वाले हिन्दी को आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं, पूरे जोर-शोर से ताल ठोंककर इसे बिखेरने का प्रयास किया जा रहा है।
हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने का सबसे प्रमुख कारण यही था कि हिन्दी देश के अधिकांश भू-भाग पर बोली और समझी जाती है ना की इसकी प्राचीनता के कारण। प्राचीनता के आधार पर तो कइ ऐसी भाषाएं और बोलियां हैं जो हिन्दी से भी पुरानी हैं(संस्कृत) लेकिन हिन्दी की सरलता और व्यापकता के चलते ही इसे राजभाषा का दर्जा दिया गया।
भारत एक विशाल देश है और भारत में विविधता का अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 प्रमुख भाषाएं हैं, और प्रत्येक भाषा की उपभाषा और बोलियां हैं। हिन्दी भी कई बोलियों और उप भाषाओं का समूह ही है। भारतीय जनगणना में मैथिली, मगही, भोजपुरी, जयपुरी, मेवाती, मालवी, गढ़वाली, कुमाऊंनी, खड़ी बोली, हरियाणवी, ब्रज, बुंदेली, कन्नैजी, अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी बोलियों की गणना हिन्दी की उपभाषा के रूप में की गई है। 2001 की जनगणना के आधार पर 48 से अधिक बोलियों और भाषाओं को हिन्दी के अर्न्तगत रखा गया।
स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी का विकास काफी हद तक बोलियों और उपभाषाओं के विकास पर र्निभर करता है लेकिन वर्तमान में ये संवर्धन के स्थान पर विघटन का कारण बनती जा रही हैं।
छोटी मानसिकता और राजनीतिक लाभ के चलते हिन्दी आज बिखरने की कगार पर है। कभी कोई भोजपुरी को लेकर खड़ा हो जाता है तो कभी कोई और...। वर्तममान में भोजपुरी को स्वतंत्र भाषा के रूप में आठवीं अनुसूची में स्थान दिये जाने की मांग की जा रही है। भाषा ही नहीं कई तो अलग भोजपुरी राज्य की भी मांग करने लगे हैं। महाराष्ट्र में मराठा मानुष और मराठी को लेकर जो भी कुछ हुआ वो आप-हम बखूबी जानते हैं। मैथिली को आठवी अनुसूची में शामिल कर लिया गया है और अब राजस्थान प्रान्त के लोग भी इसी होड़ में लगे हुए हैं।
एक लम्बे समय से हिन्दी, अंग्रेजी से संघर्ष करती आई है, सफल इसलिए हुई कि इसको अपनाने वाले बहुतायत में थे। लेकिन शायद अब ये दावे झूठे साबित हो जाएं और हिन्दी क्षेत्र की भाषा बनकर ही रह जाए।
आज इन बोलियों और उप-भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की जा रही है, कल अन्य उप-भाशएं और बोलियां भी करेंगी, ऐसे में हम हिन्दी को कहां रख पाएंगे...जिस तरह अंग्रेजों ने फूट डालकर राज्यों को अलग कर देश पर कब्ज़ा कर लिया था, ये कुछ कुछ वैसा ही है।
अन्य उप-भाषाओं और बोलियों को अनुसूची में भाषा के रूप में स्वीकार करने के परिणाम बेहद बुरे होंगे इससे हिन्दी की व्यापकता पर सवाल खड़े हो जाएगा। दूसरे की संघ की परिक्षाओं से लेकर स्कूल तक मे अंग्रेजी एक अनिवार्य विषय है... जबकि हिन्दी नहीं। ऐसे में इन बोलियों और उप-भाषाओं को स्थान देकर हम हिन्दी को भूलने में एक कदम और आगे बढ़ जाएंगे।
राजभाषा और अनुसूची में शामिल होने की दौड़ ने हिन्दी को और ज्यादा पीछे धकेल दिया है। पहले लोग हिन्दी न बोल पाने पर माफी मांगा करते थे और आज हिन्दी बोलने पर..। जो बोलते हैं इस हीन भावना से ग्रसित होते हैं कि कहीं ना कहीं वे कम पढ़े-लिखे हैं और समाज में पीछड़ गए हैं।
वर्तमान में हिन्दी के विकास में जो ठहराव सा गया है वो अंग्रेजी के विकास करने और हावी होने से कहीं ज्यादा बुरा है क्योंकि जिस भाषा में ठहराव आ जाए वो उस नदी की ही तरह हो जाती है, जो बहना बन्द कर दे। क्योंकि अन्तत: उसका पानी सड़ ही जाना है और ये बात केवल भाषा की दृष्टि से ही नहीं सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से भी उतनी ही सच है। अंग्रेजी के विकास को कोसने वालों को ये भी सोचना चाहिए कि कैसे कोई भाषा यूनिवर्सल बन गई, जबकि असलियत में तो यह ट्राइब्स की ही बोली थी। उत्तर बहुत ही सहज मिलेगा कि अंग्रेजी ने अन्य भाषाओं को भी समाहित कर अपना विस्तार किया ना कि रूढिवादी बनकर संकुचित होना स्वीकार किया।
हिन्दी का विकास करना है तो इस रूढिवादी सोच को छोड़कर स्वतन्त्र सोच के साथ हिन्दी को अपनाने की जरूरत है ना कि हर 14 सितम्बर को अंग्रेजी को कोसकर कोरम पूरा करने की।
2 comments:
http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/09/blog-post_13.html देखिए एक बार। वहाँ कुछ लिंक हैं, उनपर जाकर टिप्पणियाँ भी। जबरदस्त असहमति है आपसे इस मुद्दे पर। अंग्रेजी या कोई भाषा यूनिवर्सल है या नहीं से लेकर अंग्रेजी का विरोध क्यों तक, बहुत बातें हैं। अगर रुचि हो, तब कुछ कहेंगे वरना अभी आपने विचार रखे, इसके लिए धन्यवाद।
bilkul sahi baat
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