Friday, March 23, 2012

कुछ यूं बेबस था वो परि‍वार..


मॉल ट्रेंड ने हम भारतीयों को बहुत से वि‍कल्‍प दि‍ये हैं..प्रेमी युगल को समय बि‍ताने का एक ठौर...दोस्‍तों को मस्‍ती का एक हब...पैसे वालों को फुर्री उड़ाने का एक ठीकाना और नौकरीपेशा लोगों को महीने के पहले सप्‍ताह में 3-4 दि‍न खुश होने की एक वजह। एसी में रहने के सपने देखने वालों के लि‍ए कुछ पल ठंडक में बि‍ताने का आसरा..मनचलों के लि‍ए नयन सुख और नामी कंपनि‍यों को अपने प्रोडक्‍ट बेचने के लि‍ए बाजार... ।
लखनऊ से लौटते वक्‍त कुछ घंटे सहारागंज मॉल में बि‍ताये। कुछ खरीदने के लि‍ए नहीं..र्सि‍फ समय बि‍ताने के लि‍ए...ट्रेन लेट थी...। तरह-तरह के लोग...सबसे ज्‍यादा भीड़ बि‍ग बाजार में थी...फूड प्‍वाइंट भी लोगों से पटा हुआ था। कुछ पार्टी दे रहे थे...कुछ ले रहे थे। कुछ हर स्‍टॉल पर जाकर मेनू डीसाइड करने की कोशि‍श कर रहे थे..। कुछ ऐसे भी थे, जि‍न्‍हें एक आइटम पसंद नहीं आया तो दूसरे के लि‍ए दूसरे स्‍टॉल की कतार में थे....। हाथ में मैक डी की आइस टी लि‍ए, यही सब देखकर समय बीत रहा था। उन हजारों की भीड़ में एक परि‍वार ऐसा भी था, जो शायद हर स्‍टॉल पर घूम आया था और चुपड़ी मारकर पि‍लर के पास बैठा था। चार लोगों के इस परि‍वार में सबकी आंखे चकर-पकर इधर-उधर नाच रही थीं। फूड कोर्ट का हर स्‍टॉल खंगालने के बावजूद हाथ खाली थे...पर ऐसा नहीं था कि‍ कुछ पसंद नहीं आया होगा...क्‍योंकि ऐसा होना संभव ही नहीं है कि जहां दुनि‍या जहान का खाना मि‍ल रहा हो, वहां कुछ पसंद का न मि‍ले....हरेक के चेहरे पर कुछ तनाव, कुछ लालसा और कुछ झि‍झक थी..ये भारतीय समाज का वो तबका था जो बच्‍चों की जि‍द़द पर मॉल तो आता है..पर हदस के साथ। पति‍ को चिंता रहती है कि‍ कहीं कि‍सी को कुछ पसंद नहीं आ जाए...महंगा हुआ तो खरीद पाऊंगा या नहीं....कहीं बच्‍चों को ये ना लगे कि‍ उनके पापा तो उन्‍हें एक दि‍न अच्‍छे से घूमा भी नहीं सकते...पत्‍नी चीजें उठाकर तो देखती है, फि‍र ये कहकर रख देती है कि‍, अरे ठीक ऐसा ही सामान सोम बाजार में आधी कीमत में मि‍ल जाता है..वहीं से ले लेगें। रास्‍ते में सोचती चलती है कि‍ बच्‍चे कुछ मांग न बैठें, पता नहीं इनके पास उतने पैसे भी होगें या नहीं.. बच्‍चे ललचते हैं..दूसरों को देखकर चाहते हैं कि‍ हम भी खरीदें..पर चुप रहते हैं क्‍योंकि‍ मां घर से ही सीखाकर लाती है कि कुछ मांगना नहीं..बस घूमना। घर आकर मैं ये चीज घर पर ही बना दूंगी..और अगर गलती से मांग कर भी ली तो, कहते हैं पापा एक ही लेना, पहले टेस्‍ट कर लेते हैं..भले ही उसकी लास्‍ट बाइट के लि‍ए दोनों में लड़ाई हो जाए..। ये भारतीय समाज का सबसे बड़ा तबका है जो हर रोज अपनी जरूरतों के लि‍ए लड़ता है, एक दि‍न घूमने नि‍कलता है पर सौ बंदि‍शों के साथ....जहां 12-12 घंटे काम करने के बावजूद बाप खुद को बेबस समझता है....। 

2 comments:

रविकर said...

मध्यमता की बेबसी, चाहत भरे उड़ान ।
मन कहता तो जोर से, किन्तु धरे न कान ।


किन्तु धरे न कान, शान में गया सहारा ।
आई बड़ी थकान, घूमता मारा मारा ।

देता है समझाय, कहे बच्चों न जमता ।
दूँगी घरे बनाय, खड़ी बेबस मध्यमता ।।

विवेक राय said...

मनचलों के लिए नयनसुख ..अच्छी लाइन .ये बात बिलकुल सही है भारत की अधिकत्तम आबादी निम्न मध्यमवर्गीय है जो अपने बहुत से शौक को रोज तिलांजलि देते है मॉल में वो वही सामान लेगा जो किसी स्कीम के तहत हो या जो आम बाज़ार से सस्ती दिखती हो .बाजारीकरण में लोगो की जरूरते सिर्फ अपने जरूरत के लिए हि नहीं बढ़ रही है बल्कि इस कारन भी बढ़ रही है की हमारा पडोसी हमसे किस मामले में ज्यादा हो रहा है लोगो के अन्दर एक कुंठा जागृत हो रही है .क्योंकि जरूरतों की कोई सीमा नहीं है.मत्वाकंक्षा तो बढ़ रही है लेकिन उसको पूरा करने के साधन कम हो रहे है.मॉल सच कहिये तो उच्च अमीरों के लिए है हमरे लिए तो वह एक अजायब घर के तरह हि है जहा कभी कभी चने लेकर घूमने चले जाया करते है और कुछ तथाकथित अच्छे लोगो को देखकर खाली हाथ चले आया करते है..

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