कक्षा पांच के
पाठ्यक्रम में इतिहास एवं नागरिक शास्त्र विषय जुड़ने के बाद ही समाज की परिभाषा से पहली बार सामना हुआ।
बड़े ही सहज शब्दों में, विद्वानों की परिकल्पनाओं और थ्योरी से परे एक
साधारण सी परिभाषा रटवाई गई थी..कि समाज वह सुव्यवस्थित संरचना है...जहां लोग
आपसी मेल-जोल के साथ रहते हैं..।
जितनी आत्मीयता इस परिभाषा में है उतनी ही
कड़वाहट असल समाज में। किताबों से इतर अब जबकि समाज को देखने का मौका मिला तो
पढ़ाई ही बेमतलब सी लगती है....ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा जो झूठ सिखाती हो...। भले ही समाज की अपनी कोई पुष्ट परिभाषा ना हो
पर वह अपने लोगों को परिभाषित करने में सबसे आगे है...। कौन अच्छा है कौन बुरा
कौन चरित्रवान है और कौन चरित्रहीन यह समाज तय करता है...
पुरूषों के मामले में
तो समाज भले ही एक बार मुर्रवत कर भी ले पर जहां बात लड़की की हो...वहां समाज की
ओर से केवल नकरात्मक टिप्पणी ही आती है....। कोई लड़की प्यार कर ले तो समाज कहता
है कि जवानी संभली नहीं....नौकरी-पेशा करे तो कहा जाता है कि जरूरतें बहुत हैं
उसकी...घर बैठी रहे तो परिवार की आड़ में कहते हैं कि घरवालों को भरोसा नहीं
होगा...तभी तो बाहर नहीं निकलने देते...प्रमोशन मिल जाए तो बॉस को खुश करने का
लांछन....। मतलब हर तरह से आपको कलंकित होना ही है...।
इसके विपरीत अपवाद हो
सकते हैं पर दुर्भाग्य भी यही है कि यह अपवाद समाज का एक हिस्सा भी नहीं है....।
फिजा और गीतिका का मामला भी इसका ताजा उदाहरण हैं...। फिजा की मौत के बाद से समाज
ने उसे अति महत्वाकांक्षी, तेज-तर्रार, एक्स्ट्रा फारवर्ड कहकर सारी गलती उसके
सिर मढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी...पर उसके हत्यारों और उस पर लगाए गए इन तथाकथित
आरोपों में उसके हमदम-हमकदम पर एक टिप्पणी भी नहीं की गई...। मरने से पहले तो वह
फिर भी इन सवालों का वाजिब जवाब देती थी पर अब समाज हर रोज उसकी इज्जत उछालता
है..और शायद अब यही एकमात्र वजह भी बन गई है ...उसे याद करने की।
रही बात गीतिका
की तो भले आरोपी और हत्या से जुड़े लोगो को लेकर पूछताछ की जा रही हो पर फायदा क्या
है...। सब जानते हैं कि पहुंच का कमाल आने वाले समय में दिखना है ही..। शायद हर
रोज बेइज्ज्ती का दंश ना झेलने के लिए ही गीतिका ने खुदकुशी की होगी पर अब हर
रात न्यूज चैनल पर और उसे देखने के बाद इस सभ्य समाज के हर घर में उसकी कहानी को
बेहुदा तरीके से विद ड्रामा पेश कर उसे बेइज्जत किया जाता है....।
यह सच है कि इन लड़कियों ने गलती तो की.. पर क्या इस पूरी गलती में वो अकेले थीं....शायद नहीं।
पर बेइज्ज्ती का श्राप वो अकेले ही झेल रही हैं....जीते जी भी और अब मरने के बाद
भी। यह हर लड़की के साथ होता है...किसी के साथ परिवार के स्तर पर...किसी से कॉलोनी
और किसी से देश के स्तर पर..लेकिन होता है तो केवल लड़कियों के साथ । ऐसे में
समाज की परिभाषा कैसी होनी चाहिए...यह आप ही तय कीजिए....।
5 comments:
बहुत सटीक..
कुछ कुत्सित उदाहरणों के आधार पर समाज की संरचना को समझने का प्रयास उचित नहीं.
आपका यह आलेख सोचने पर मजबूर करता है।
सादर
कल 26/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सार्थक पोस्ट एक एक बात से सहमत औरत की व्यथा कहने में सफल रचना |
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