Sunday, September 16, 2012

कितने तरह के भिखारी..

तस्‍वीरें खींच पाती तो शायद बेहतर समझा पाती लेकिन ना तो खींचने का समय मिला और ना ही हिम्‍मत हुई। हर सुबह उठकर तैयार होना, ऑफिस जाना और शाम को सात बजने की बाट देखना...। टाइम पूरा होते ही जान छुड़ाकर भागना और फिर घर आ जाना। आलस सवार हो तो फोन पर खाना बनाना और नहीं तो गैस पर। हर रोज लगभग एक सी ही दिनचर्या होती है लेकिन सच ये भी है कि इससे ऊबना बंद कर दिया है। हर रोज वही सबकुछ....वही सड़क, वही नोएडा की फट-फट सेवा और वही मै।
इन सबके बीच हर चौराहे पर कुछ परिचित हो गए हैं...वो शायद मुझे नहीं पहचानते पर...मेरे लिए अनजान नहीं रह गए हैं..। फट-फट पर बैठने के साथ ही उनसे उस दिन की भेंट का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक वो जो एक डंडे के सहारे हिलता है....शायद लकवा मार गया होगा उसे कभी....। पर इतना तो तय है कि अगर 60 फीसद वह बीमारी के कारण हिलता है तो 40 फीसद जान-बूझकर। टैंपो के रुकते ही पैर छूने लगता है...बेचारों सा मुंह बनाकर दुहाई देने लगता है। डांटकर सुनकर वो जैसे ही आगे बढ़ा है कुछ बच्‍चे आ जाते हैं...ए दीदी...ए मैडम...कुछ दे दो...खाना नहीं खाया ..भूख लगी है....दे दो। पैर पर सिर तक रख देते हैं...पर उनसे ज्‍यादा देरी बर्दाश्‍त नहीं होती और वो खुद ही आगे बढ़ जाते हैं...।
 उसके बाद बारी आती है उन औरतों की जो अपने साथ हमेशा....बारहोंमासी एक नवजात रखती हैं..। खिल्‍ली उड़ाना मकसद नहीं है..इन्‍हीं सबको देखते हुए जाती-आती हूं। जैसा महसूस किया वही बता रही हूं। हाथ में खाली बोतल...बच्‍चे के नाम पर दूध के लिए पैसे मांगते हाथ.. और आगे बढ़ने का इशारा पाते ही तेजी से आगे बढ़ते पैर......।
हालांकि आज तक यह तय नहीं कर पाई कि इनकी मदद करना सही है या गलत...। पर इन्‍हे देखकर हर बार कई सवाल जहन में आते हैं।
यह मेरे रोज के परिचित है पर कुछ ऐसे भी हैं जो मासिक या साप्‍ताहिक तौर पर मिलते हैं। अक्‍सर निजामुददीन औलिया जाना हो जाता है। यहां के मांगने वाले दूसरे किस्‍म के हैं। जो वहीं जमे रहते हैं...पर उनके लिए ना तो मैं अपरीचित हूं और ना मेरे लिए वो। खास बात ये है कि यहां के भिखारी उन्‍हीं से भीख मांगते हैं जो उन्‍हें नया नजर आता है। यह मेरा अनुभव है। पहले की तुलना में बुर्का पहने कुछ कम महिलाएं पीछा करती हैं...। खुद एक के पीछे रहती हैं तो बच्‍चे को दूसरे के पीछे दौड़ा देती हैं...। पर यह सच है कि उन्‍हे मनोविज्ञान की पूरी समझ है। उन्‍हें ना जाने यह एहसास कैसे हो जाता है कि फलां बंदा बहुत दुखी है...दुआ के नाम पर कुछ भी कर देगा..। ना जाने कैसे..। मर्दो की संख्‍या भी है पर वे पीछा नहीं करते...। बैठे रहते हैं.और मांगते रहते हैं...।
ये क्‍यों मांगते हैं ये तो पता है पर ये कब तक मांगेंगे इस सवाल का जवाब शायद ही किसी के पास हो।

2 comments:

mridula pradhan said...

achcha likhi hai......lekin aapka naam kya hai?

Arvind Mishra said...

पार्श्व में कुछ भी हो ,वे मनुष्य हैं तो यथासंभव उन्हें कुछ दे देना चाहिए !

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