Thursday, February 21, 2013

निपटाने नहीं निभाने का नाम है प्‍यार.....


बच्‍चे की पहली पाठशाला उसका घर होता है्....जहां उसे समाज, समाज के लोगों और दीन-दुनिया के बारे में पता चलता है। घर में सब यही सिखाते हैं कि सबसे प्‍यार करना...नफरत इंसान को बुरा बना देती है...। नफरत करने वालों को कोई पसंद नहीं करता...। प्‍ले स्‍कूल में भी सबसे प्‍यार करने का ही पाठ पढ़ाया जाता है...उसके बाद कक्षा पांच तक तो बकायदा नैतिक शिक्षा का एक विषय ही होता है..;जिसमें कोई पाठ हो न हो सबसे प्रेम करो नाम का एक पाठ जरूर होता है।
पर बचपन में यह कभी नहीं सिखाया जाता कि इससे प्‍यार करना..उससे नहीं। तब तो सड़क के कुत्‍ते से भी प्‍यार करना सिखाया जाता है। उस समय तो यही सिखाया जाता है कि हमसे समाज है और यहां प्‍यार बांटना हमारी जिम्‍मेदारी है। उस वक्‍त तो यह कभी नहीं सिखाया जाता कि अपनी डेस्‍क पर बैठने वाली लड़की से प्‍यार करना लेकिन लड़के से नहीं...। जाति धर्म समझने की उम्र नहीं होती है...सो वो भी नहीं समझाया जा सकता...।
बच्‍चे अपना दोस्‍त खुद चुनते हैं...घर में भी सबके लिए उसका प्‍यार एक सा नहीं होता...फिर वही घर वाले यह क्‍यों सोच बैठते हैं कि अगर कोई लड़की या कोई लड़का किसी से प्‍यार करे तो उसमें जाति-धर्म, पैसा-रुतबा, खानदान का ध्‍यान रखकर करे..।
हालांकि यह सच है कि इस प्‍यार का प्रारूप और भेद बिल्‍कुल अलग होता है लेकिन अगर इस प्‍यार में जिम्‍मेदारी का पुट हो तो भी क्‍या इसे पाप की नजर से देखना सही है....शायद नहीं।
 और अगर भविष्‍य में यही फैसला देना है...तो बच्‍चों की परवरिश में ही जाति का बीज बो देना चाहिए..लड़कियों और लड़कों को बचपन से ही सिखा देना चाहिए कि बेटा..प्‍यार करने की छूट है लेकिन अपने धर्म और जाति को छोड़कर किसी और से नहीं कर सकते...।
शायद तब बच्‍चे भी युवा होने पर प्‍यार की सीमा समझ कर ही प्‍यार करें...लेकिन असलियत तो यही है कि सीमा में बंधकर प्‍यार निभाया नहीं बस निपटाया ही जा सकता है...।

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बिलकुल सही कहा है ...

Arvind Mishra said...

आज इटावा में घटी घटना के परिप्रेक्ष्य में यह रचना बड़ी प्रासंगिक लग रही है -हिन्दू लड़की और मुस्लिम लडके के कोर्ट मैरेज करने के ठीक बाद लड़के को गोली मार दी गयी! यह समाज का सच है!

Devender said...

main apki baat se sehmat hun bhi aur nahin bhi, Asehmat isliye ki pyar nibhate waqt hamein itna swarthi bhi nahin ban jana chahiye ki apne pariwaar va mata pita ko sharminda hona pade. Vaise bhi mera to manna yahi hai ki saccha pyar na to bahut jyada soch vichar kar kiya jata hai aur na hi wo kisi rishte ke naam ka mohtaaz hota hai. kya hua yadi hum apne pyar ko ek rishte ka naam nahin de paye to. kya hum apne parivaar, samaj ke prati apne dayitva to nibhate hue apne dil mein apne pyaar ki khushboo ko salamat nahin rakh sakte. vaise to ye lambi behas ka mudda hai par fir bhi yahi kahunga
"Humne dekhi hai in ankhon ki mehakti khushboo hath se chhoke ise rishton ka ilzaam na do, ek ehsaas hai ye rooh se mehsoos karo , pyar ko pyar hi rehne do koi naam na do.

Devender said...

Main apki baat se sehmat hun aur nahin bhi kyonki pyar karna gunaah nahin lekin apna pyaar nibhate waqt humein itna bhi swarthi nahin ho jana chahiye ki hamare maa baap va parivar to samaj mein neecha dekhna pade. Waise bhi saccha pyar kisi rishte ke naam ka mohtaaz nahin hota. Kya hua yadi kisi samajik dushwari ke chalte koi apne pyaar ko ek rishte ka naam nahin de paya isse uske pyar ka mehhtav kam to nahin ho jata.
"Humne dekhi hai in ankhon ki mehakti khushboo hath se choo ke ise rishton ka ilzaam na do, sirf ehsaas hai ye rooh se mehsoos karo pyar ko pyar hi rehne do koi naam na do"

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