Wednesday, April 02, 2014

इन दि‍लों ने तो महसूस करना कब का छोड़ दि‍या

वो मंच पर खड़े थे लेकि‍न उनके चेहरे सामने की ओर नहीं थे। कोई ऊपर देख रहा था तो कोई पीछे। कोई दाईं ओर देख रहा था तो कोई बांयी। कुछ के चेहरे सामने की ओर भी थे लेकि‍न उन्‍हें खुद को भी नहीं पता था कि वो सामने देख रहे हैं।

सालों बाद ऑडि‍टोरि‍यम की गलि‍यों में जाना हुआ था। दि‍शाएं नाम की एक संस्‍था ने देखने में अक्षम बच्‍चों के साथ मि‍लकर एक कार्यक्रम का आयोजन कि‍या था। कार्यक्रम में जाने से पहले मन में पहला ख्याल यही आया कि वहां जाकर क्‍या करूंगी लेकि‍न काम कुछ था नहीं और बैठै-बैठे उबाइयां लेने से बेहतर यही लगा कि वहां चली जाती हूं।

जाने के बाद एहसास हुआ कि ‍अच्‍छा कि‍या जो यहां आ गई, नहीं आती तो हमारे समाज में ही रहकर एक अलग दुनि‍या जीने वालों की जि‍न्‍दगी को इतने करीब से कभी महसूस नहीं कर पाती। मंच पर करीब 10 से 12 बच्‍चे खड़े थे। अमूमन मंच पर खड़े होने से पहले हम कोशि‍श करते हैं कि अपनी सबसे सुंदर ड्रेस पहने लेकि‍न उनके कपड़े बेतरतीब थे। उन्‍हें देखकर ही लग रहा था कि उन्‍होंने कपड़ों के बारे में कभी सोचा ही नहीं।

कुछ की आंखों पर चश्‍मे थे और कुछ के नहीं। नंगी आंखों से उनकी दुनि‍या की सच्‍चाई साफ नजर आ रही थी। पर मेरी नजरें केवल उस लड़के पर टि‍की थीं जो बार-बार अपनी पैंट को खींच रहा था। ये साफ बता दूं कि वो लड़का जि‍स जगह और जि‍स तरह अपनी पैंट खींच रहा था, उसे हम और आप अश्‍लील मान सकते हैं लेकि‍न उसके लि‍ए ये अश्‍लील नहीं था। उसे तो ये भी नहीं पता होगा कि ‍हम देखने वालों ने शीलता और अश्‍लीलता के कि‍तने मायने गढ़ रखे हैं। वो बार-बार अपनी नि‍चले बदन को खुजाता। कुछ देर शांत रहने के बाद उसके हाथ दोबारा वहीं पहुंच जाते।

वहां बैठे-बैठे हजारों ख्‍याल आ-जा रहे थे। कभी सोचती, इसे क्‍या परेशानी हो रही है फि‍र अगले पल को मन करता कि‍सी को जाकर कह दूं कि उसे ऐसा करने से रोके। लेकि‍न तभी उस लड़के के साथ खड़े उसके एक दोस्‍त ने उसका हाथ थाम लि‍या।

मुझे समझ नहीं आया कि उसे कैसे पता चला कि‍ वो ऐसा कर रहा है और उसे रोकने की जरूरत है। पूरे परफॉर्मेंस के दौरान उसने अपने दोस्‍त का हाथ थामे रखा। शायद उनकी दोस्‍ती कि‍सी नजर की मोहताज नहीं। एक करता है और दूसरा समझ जाता है।

अब सोचती हूं कि‍ ये बदकि‍स्‍मत तो हैं क्‍योंकि इन्‍होंने भगवान की बनाई दुनि‍या के रंग नहीं देखे लेकि‍न अगले ही पल ये ख्‍याल प्रबल हो जाता है कि‍ अच्‍छा हुआ जो वो देख नहीं सकते। वरना केवल मतलब के साथी बनकर रह जाते, केवल वही देखते जो वो देखना चाहते।
अभी कम से कम महसूस तो करते हैं। नहीं तो, हमारे दि‍लों ने तो महसूस करना कब का छोड़ दि‍या है।


1 comment:

Ankur Jain said...

बहुत गहरी बात कहती प्रस्तुति..दिल तो सिर्फ धड़कने के लिये ही रह गया है शायद...

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