Monday, May 05, 2014

स्टेशन की बेंच पर बैठी वो मायूस आंखें...

रात की ट्रेन थी...पहली बार ट्रेन से कानपुर जा रही थी। इससे पहले लखनऊ में रही तो घर से ही बस पकड़ लेती थी। पहला मौका था और कानपुर शताब्‍दी की वि‍डो सीट थी।

विंडो सीट पर माथा टेककर बैठी थी। वजहें मेरी अपनी थीं। अकेली थी इसलि‍ए लोगों की सुरत देखने से बेहतर यही लगा कि बाहर का नजारा ही देख लि‍या जाए और दूसरी अहम वजह ये थी कि हर सेकंड रास्‍ते को आंखों से तौल रही थी। कहीं रात ज्‍यादा तो नहीं हो गई, कौन-सा स्‍टेशन बीता...और साथ थीं पटरि‍यों के सहारे चलतीं ढेरों यादें।

इसी बीच ट्रेन औरैया स्‍टेशन पर पहुंची...। रात करीब साढ़े सात बजे हम औरैया स्‍टेशन थे। हालांकि, पहुंचना तो हमें 7 बजे ही था लेकि‍न आधे घंटे की देरी ज्‍यादा खल नहीं रही थी। स्‍टेशन पर खाली पड़ी एक बेंच पर पीछे से एक औरत आई और कुछ ऐसे बैठी, जैसे ये उसके घर का बि‍स्‍तरा हो। 

साथ में कुछ महीनों का एक कमजोर सा बच्‍चा...। मां आगे-आगे चल रही थी और वो कमजोर सा बच्‍चा उससे कुछ कदमों की दूरी पर। उसके हाथ में एक पांच रुपए वाले स्‍नैक्‍स का पैकेट था। उसने उस पैकेट को कुछ ऐसे पकड़ रखा था मानों ये उसका वही तोता हो, जि‍समें उसकी जान बसी है। 

न तो मां के पैरों में चप्‍पल थी और न ही बच्‍चे के पैर में। पर दोनों को उससे कोई फर्क पड़ता नहीं दि‍ख रहा था। मां ने पहले अपना गंदा सा झोला बेंच पर रखा और उसके बाद खुद बैठ गई। उधर बच्‍चा भी बेंच पर चढ़ने की पूरी कोशि‍श कर रहा था...मां ने उसका एक हाथ उठाकर उसे टेबल पर चढ़ा दि‍या। 

बच्‍चे ने अपना पैकेट फाड़ा और खाना शुरू...मां भी बीच-बीच में उसमें हाथ डाल दे रही थी..पर उसकी नजरें वहां से गुजरने वाली हर औरत को कुछ ऐसे ताड़ रही थी, मानों वो उनका पोर-पोर गि‍न लेगी।

वि‍डों सीट पर बैठकर कई कयास लगाए। सही कौन सा हो, पता नहीं पर मुझे यही लगा कि उसकी ललचाई नजरें, अपने लि‍ए वही सब देखना चाहती होंगी, वही पाना चाहती होंगी, जो दूसरी औरतों के पास है। उसे भी एक बि‍ना कहीं से फटी साड़ी की दरकार होगी, उसे भी एक चप्‍पल एक बैग चाहि‍ए होगा। वो स्‍टेशन पर कुछ यूं बैठी थी, मानों सबकुछ पीछे छोड़ आई है, कहां जाना है कुछ पता नहीं, कोई सुराग नहीं। 

उसकी आंखों की वो खामोशी और भावनाशुन्‍य चेहरा आज भी मेरी आंखों में उतना ही जीवंत है...। राजनीतिक माहौल में दि‍माग में अंति‍म ख्‍याल बस यही आया कि चाहे कोई भी सरकार बनें, इन लोगों के लि‍ए जरूर कुछ करें। जो वि‍कल्‍प नहीं चाहते, क्‍योंकि उनकी तो जरुरतें ही अब तक अधूरी हैं। 

4 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सीट ब्लेट पहनो और दुआ ले लो - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

सुशील कुमार जोशी said...

अच्छी लेखनी ।

कौशल लाल said...

कल की आश मे हि तो वो आज वहॉँ है.... सुन्दर लेखन

मुकेश कुमार सिन्हा said...

आमीन, ऐसा ही हो :)
शुभकामनायें !!

Popular Posts