Thursday, December 04, 2014

आज भी एक पैर उसी पहली सीढ़ी पर है...


मां का चले जाना केवल उसका जाना नहीं होता है...उसके साथ शायद वो हर हक़ चला जाता है, जो उसकी बेटी का हो सकता था. बचपना दिखाना, खाने की फ़रमाइशें करना, कपड़े मांगना, रोने पर मनाये जाने की आस का होना...दूर जाने पर फोन आने की उम्मीद का होना, मां के हाथ का खाना बांटना, बीमार पड़ने पर दवाई के बारे में पूछना, छींक आते ही मां का समझ जाना की तबियत ख़राब है, सबकुछ...

पर उसके जाने के बाद कितनी उधार की जि़न्दगी हो जाती है...छोटे रहो तो बड़ों के कहे के हिसाब से करो. स्कूल में दोस्तों की नकल, काॅलेज में टीचर और साथ पढ़ने वाली लड़कियों की नकल, आॅफिस में साथियों की नकल और प्यार के मामले में टीवी और फिल्मों की नकल....

क्योंकि कोई होता ही नहीं है जो बता दे कि ऐसे करो, वैसे करो...कहने को सब कहते हैं कि मां नहीं तो क्या हुआ, हम हैं न.... लेकिन जि़द, नाराज़गी या दुख में सब मुंह छिपा लेते हैं..

हर बार लगता है ये पुरानी बात हो चुकी लेकिन बचपन कभी पूरा ही नहीं हुआ तो आज भी बचकानी हरकतें बाकी हैं....पर लोग नखरे तो नहीं उठा सकते...वो बस कह सकते हैं बी मैच्योर...जि़न्दगी में बहुत कुछ है करने को...पर आज भी एक पैर उसी पहली सीढ़ी पर है, शायद कभी आगे बढ़ पाए...

2 comments:

richa said...

God bless you!

Test said...

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