तस्वीर लेने के लिए कैमरा आॅन किया था, लेकिन हिम्मत नहीं हुई की उन जूतों की फोटो ले सकूं ...
तीनों की उम्र 10 से 12 साल के बीच रही होगी...तीनों के पैरों में स्कूल वाले काले, रेक्सीन के जूते थे. जिनकी काली चमड़ी उतर-उतरकर गिर रही थी. उनमें से एक का जूता तो इस कदर घिस चुका था की चमड़े को सपोर्ट करने वाला कपड़ा बाहर आ गया था और उसके नीचे से उसकी हिलती-डुलती उंगलियां साफ़ नज़र आ रही थीं.
शायद वो किसी रिश्तेदार के यहां जा रहे थे. सामने ही उनका पिता खड़ा था. जिसे देखकर अंदाज़ा लग रहा था की उसके लिए नए कपड़ों का मतलब रेडीमेड गारमेंट की दुकान या कोई माॅल नहीं बल्कि किसी बड़े घर की उतरन है.
वही कपड़े जो छोटे हो जाने, रंग हल्का पड़ जाने या फिर रोएं उभर आने पर कामवाली बाई, पेंटर या फिर झाड़ू लगाने वाले के लिए निकाल दिए जाते हैं. उसका कद पांच फुट ये अधिक नहीं रहा होगा लेकिन उसने पैंट किसी छह फुट के शख्स की पहन रखी थी.
बच्चे मेट्रो में सफ़र करते हुए खुश थे. छोटी वाली लड़की के अंदर उत्सुकता थी की ये मेट्रों अंतिम छोर पर कैसी हो जाती है...वो बार-बार सीट से उठती और पंजों को ज़मीन पर टिकाकर एड़ी उचकाकर आगे देखने की कोशिश करती...उसके बार-बार ऐसा करने से पिता बुरी तरह चिढ़ रहा था. वो उसे बार-बार धमकी दे रहा था की बैठ जाओ वरना इसी में छोड़कर चले जाएंगे. (उसने ये सबकुछ भोजपुरी में कहा था.)
इसी बीच देखा-देखी लड़का भी हैंडल पर लटकने की कोशिश करने लगा...पिता के सब्र का बांध टूट गया, उसने दोनों को एक-एक थप्पड़ धर दिया...पर दोनों रोए नहीं, मुस्कुराते हुए सीट पर आ बैठे...
बड़ी बहन ने दोनों का हाथ पकड़ा और जो कहा उसे सुनकर...
मान जाओ तुम लोग, वरना पापा भी मम्मी की तरह छोड़कर चले जाएंगे.
(उसने ये भोजपुरी में कहा था)
चांदनी चौक आ गया और बाप ने सबको कतारबद्ध करके गेट के बाहर कदम रखा...
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