आंटी के पास चार झोले थे... एक उनका चमड़े वाला पर्स, दूसरा लंच-बाॅक्स का बैग, तीसरे में पानी और फल जैसा कुछ रहा होगा पर चौथा झोला बहुत चमकीला था. सुंदर भी. उसका टंगना लेस का था और और चमकीले गोटे से उस पर काम किया हुआ था.
आंटी ने मेट्रो में घुसने के साथ ही लेडीज़ सीट पर अटैक किया और उस पर बैठे लड़के को खड़ा कर दिया. इतने पर भी उन्हें अच्छा नहीं लगा तो उन्होंने कहा क्या तुम इधर हो जाओगी, थोड़ा शीशे से टेक ले लूंगी.
टेक लगाने के साथ ही उनके उस चमकीले झोले से एक रंग-बिरंगी किताब निकली. पाॅकेट-बुक. पाॅकेट बुक दरअसल हनुमान चालीसा थी. पर उसके हर पन्ने पर भावानुकूल चित्र था और सबसे नीचे उसका मतलब लिखा हुआ था. आंटी ने बहुत तल्लीनता के साथ हुनमान चालीसा पढ़नी शुरू की. पूरा ख़त्म करने में उन्हें 10 मिनट के आस-पास लगे होंगे. उसके बाद उन्होंने उसी झोले से शिव चालीसा निकाली और उसे पढ़ना शुरू कर दिया.
सामने ही खड़ा लड़का "बदला मिज़ाज मेरा फूंकते ही..."वाला गाना सुन रहा था. ईयरफोप फट चुका था, या फिर इतना तेज था कि आवाज़ हमें भी आ रही थी. लेकिन आंटी ध्यानमग्न बनी रहीं...
इस तरह से आज का सफ़र हनुमान जी और शिव शंकर के साथ करने का सौभाग्य मिला. इसका एक पहलू ये भी है कि हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि भगवान का ध्यान भी करने में टाइम वेस्ट मानते हैं. ये सोचकर किताबें झोले में भर लेते हैं कि मेट्रो में बैठे-बैठे हनुमान चालीसा निपटा ली जाएगी, वैसे भी रास्ता करीब 15 से मिनट का है....
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