Monday, January 04, 2016

'कुछ' की भूख

आज अचानक ही मीरा को ये सब याद आ गया. वैसे इतना अचानक भी नहीं था. ऑफि‍स से लौटकर उसे कुछ खाने का दि‍ल कर रहा था. भूख नहीं लगी थी पर कुछ खाने का दि‍ल था. घर पर कुछ भी ऐसा नहीं था, जो वो तुरंत खा ले. बि‍ना पकाए. उसे बचपन के वो दि‍न याद आ गए, जब उसे 'कुछ' की भूख लगा करती थी. 
कुछ इंतज़ाम करने की जगह वो सालों पुराने उस एलबम को खोलकर बैठ गई. जि‍समें उसका वो हंसता-खेलता बचपन-परि‍वार आज भी बसा हुआ है. केवल तस्वीरों में, असलि‍यत में तो सब उसे छोड़ कर जा चुके हैं...वो भी एक साथ. अब न तो उसके पास जानकी है और न ही मम्मी और न पापा. सभी उसे छोड़कर जा चुके हैं.  


वो याद कर रही थी की कैसे बचपन में शाम होते ही उसे 'भूख-सी' लग आती थी...'भूख-सी' क्योंकि उस वक्त दाल-चावल, रोटी-सब्जी या पराठा-अचार खाने का मन नहीं करता था. मन करता था कुछ चटक-मटक खाया जाए. मसलन चिप्स, समोसा, टिक्की या फिर बाहर का कुछ... 
मम्मी को एक दिन के लिए तो मनाया जा सकता था, पर रोज़ तो संभव नहीं ही था.

शाम 4 बजते ही उसकी ये  भूख बढ़ जाती. कहने में उसे डर लगता था, तो मम्मी से सिर्फ इतना ही कहती की कुछ खाने को दे  दो. मम्मी पूछती 'कुछ' मतलब क्या खाना है, तो जवाब होता 'कुछ भी'... 
ये सवाल- जवाब का सिलसिला काफी देर तक चलता...मम्मी थोड़ी देर बाद झुंझला जातीं और कहती 'कुछ भी' मतलब मुझे नहीं पता, नाम बताओ. 
पर नाम बताना तो सीधे शेर के मुंह में हाथ डालने के बराबर होता...इसलिए मुंह बिचकाकर कहती 'कुछ भी' दे दो न...पता नहीं  मम्मी को कैसे, बिना कहे मालूम चल जाता था कि उसे खाने की नहीं जीभ के चटकारे की भूख है. उन्हें अंदाजा हो जाता था, पर वो भी आखिरी समय तक कोशिश करतीं की वो मान जाए और रोटी-पराठा टाइप या दूध पी ले. लेकिन सूजा हुआ थूथन देखकर उनकी आखिरी लाइन  यही होती, जाओ मुंह पिटाओ. 
उसके बाद तो घर में पटनी पर बिछे अख़बारों के नीचे हाथ डालकर सिक्का खोजने की देर होती, लगभग हमेशा ही एक-दो रूपए मिल जाते. नहीं मिलते तो वो मम्मी से ही होली पर बने पापड़ तलने का कह देती. पर त्याग की भावना से.  


एलबम देखते-देखते और इन पुराने ख़्यालों आज अचानक ही मीरा को ये सब याद आ गया. वैसे इतना अचानक भी नहीं था. ऑफि‍स से लौटकर उसे कुछ खाने का दि‍ल कर रहा था. भूख नहीं लगी थी पर कुछ खाने का दि‍ल था. घर पर कुछ भी ऐसा नहीं था, जो वो तुरंत खा ले. बि‍ना पकाए. उसे बचपन के वो दि‍न याद आ गए, जब उसे 'कुछ' की भूख लगा करती थी. 
कुछ इंतज़ाम करने की जगह वो सालों पुराने उस एलबम को खोलकर बैठ गई. जि‍समें उसका वो हंसता-खेलता बचपन-परि‍वार आज भी बसा हुआ है. केवल तस्वीरों में, असलि‍यत में तो सब उसे छोड़ कर जा चुके हैं...वो भी एक साथ. अब न तो उसके पास जानकी है और न ही मम्मी और न पापा. सभी उसे छोड़कर जा चुके हैं.  


वो याद कर रही थी की कैसे बचपन में शाम होते ही उसे 'भूख-सी' लग आती थी...'भूख-सी' क्योंकि उस वक्त दाल-चावल, रोटी-सब्जी या पराठा-अचार खाने का मन नहीं करता था. मन करता था कुछ चटक-मटक खाया जाए. मसलन चिप्स, समोसा, टिक्की या फिर बाहर का कुछ... 
मम्मी को एक दिन के लिए तो मनाया जा सकता था, पर रोज़ तो संभव नहीं ही था. शाम 4 बजते ही उसकी ये  भूख बढ़ जाती. कहने में उसे डर लगता था, तो मम्मी से सिर्फ इतना ही कहती की कुछ खाने को दे  दो. मम्मी पूछती 'कुछ' मतलब क्या खाना है, तो जवाब होता 'कुछ भी'... 
ये सवाल- जवाब का सिलसिला काफी देर तक चलता...मम्मी थोड़ी देर बाद झुंझला जातीं और कहती 'कुछ भी' मतलब मुझे नहीं पता, नाम बताओ. 
पर नाम बताना तो सीधे शेर के मुंह में हाथ डालने के बराबर होता...इसलिए मुंह बिचकाकर कहती 'कुछ भी' दे दो न...पता नहीं  मम्मी को कैसे, बिना कहे मालूम चल जाता था कि उसे खाने की नहीं जीभ के चटकारे की भूख है.

उन्हें अंदाजा हो जाता था, पर वो भी आखिरी समय तक कोशिश करतीं की वो मान जाए और रोटी-पराठा टाइप या दूध पी ले. लेकिन सूजा हुआ थूथन देखकर उनकी आखिरी लाइन  यही होती, जाओ मुंह पिटाओ. 
उसके बाद तो घर में पटनी पर बिछे अख़बारों के नीचे हाथ डालकर सिक्का खोजने की देर होती, लगभग हमेशा ही एक-दो रूपए मिल जाते. नहीं मिलते तो वो मम्मी से ही होली पर बने पापड़ तलने का कह देती. पर त्याग की भावना से.  
एलबम देखते-देखते और इन पुराने ख़्यालों को चुनते-बुनते काफी वक्त बीच चुका था. मीरा की नज़र दीवार पर टंगी घड़ी पर पड़ी, रात के दस बज चुके थे. पूरे तीन घंटे वो उस एलबम को सामने रखकर रोती रही थी और उसे एहसास भी नहीं हुआ था.    


एलबम गीला हो चुका था और उसकी भूख मर चुकी थी... 
एक अच्छी कंपनी में काम करने वाली मीरा अपने घर में अकेले रहती है...हाथ में महंगा मोबाइल, हाथ की लकीरों की तरह हमेशा चि‍पका रहता है...उस रात भी चाहती तो कि‍सी जगह से कुछ ऑर्डर कर सकती थी, पर उसने कुछ भी नहीं मंगाया. 
यादों ने पेट और मन दोनों भर दि‍ए थे और साथ ही वो अच्छी तरह जानती थी उसकी उस 'कुछ' वाली भूख को समझने वाला अब कोई नहीं है...  
उसने लगभग गीला हो चुका एलबम सि‍रहाने रखा और मोटी हो चुकी आंखों को ज़बरन मींचकर नींद आने का इंतज़ार करने लगी...  को चुनते-बुनते काफी वक्त बीच चुका था. मीरा की नज़र दीवार पर टंगी घड़ी पर पड़ी, रात के दस बज चुके थे. पूरे तीन घंटे वो उस एलबम को सामने रखकर रोती रही थी और उसे एहसास भी नहीं हुआ था.    


एलबम गीला हो चुका था और उसकी भूख मर चुकी थी... 
एक अच्छी कंपनी में काम करने वाली मीरा अपने घर में अकेले रहती है...हाथ में महंगा मोबाइल, हाथ की लकीरों की तरह हमेशा चि‍पका रहता है...उस रात भी चाहती तो कि‍सी जगह से कुछ ऑर्डर कर सकती थी, पर उसने कुछ भी नहीं मंगाया. 
यादों ने पेट और मन दोनों भर दि‍ए थे और साथ ही वो अच्छी तरह जानती थी उसकी उस 'कुछ' वाली भूख को समझने वाला अब कोई नहीं है...  
उसने लगभग गीला हो चुका एलबम सि‍रहाने रखा और मोटी हो चुकी आंखों को ज़बरन मींचकर नींद आने का इंतज़ार करने लगी... 

1 comment:

Unknown said...

Very nice Power-Puff girl...

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