लंच होते ही, वो सबसे कट जाती
दोस्त तो बहुत थे, सच्चे भी थे पर...
फिर भी एक कोने में ही लंच करती.
सबको लगता की वो अपना अच्छा खाना
किसी से बांटना नहीं चाहती...
पर वो अपने लंच से बहता तेल
किसी को दिखाना नहीं चाहती...
गोभी हो या फिर भिंडी, आलू हो या बैंगन
उसकी टिफि़न में सब एक ही शक्ल के दिखते
रोटी, सब्ज़ी के तेल से अधपकी पूड़ी हो जाती.
अक्सर कुछ आलू कच्चे ही रह जाते,
जो रोटी से दबाने के दौरान
फ़र्श पर छिटक जाते...
पर वो खाना अकेले ही खाती...
अक्सर, दूसरों का चाटा अचार मांग लाती
और अपनी रोटी का अंतिम नीवाला
स्वाद लेकर खाती...
पर वो लंच-बाॅक्स भी बेशकीमती था
पापा हर रोज़ कुछ ख़ास लंच बनाने की कोशिश करते
हर रोज़ एक नया एक्सपेरिमेंट करते...
जिस दिन लंच बाॅक्स खाली मिलता, वो जान जाते
फिर आने वाले चार-पांच दिन कुछ नया नहीं, वही बनाते
उस समय, सबके पास बहुत कुछ होता था दिखाने के लिए
पर आज मैं सबसे अमीर हूं...
मेरे पास पापा की वो यादें हैं, जो सौ में से एक के पास हो
मैं उन सैकड़ो में से एक हूं, जिसने पापा का ममता भरा रूप देखा है....
No comments:
Post a Comment