Friday, September 30, 2011

जहां आज भी त्यौहारों के असली मायने जिन्दा हैं

.....किसी के घर कुछ खाना नहीं,कोई कुछ दे तो लेना नहीं,सड़क पर देखकर चलना..लांघन ना पड़े...इन दिनों में लोग टोना-टोटका करते हैं...नवरात्रि के एक दिन पहले ही मां ये सब समझाने बैठ जातीं। रात में ही मेरे और बड़ी बहन के पैरों में काला धागा बांध दिया जाता कि टोने-टोटके से हम दोनों बचे रहें। पूरे नवरात्रि लगभग रोज ही, मां ये बातें समझाती...और हम दोनों भी इन बातों का पूरी निष्ठा से पालन करते...।पूरे नौ दिन हम दोनों बहने एक-दूसरे की जासूसी करते..कि कब कोई  नियम तोड़े और मां से शिकायत करने का मौका मिले।


कुछ ऐसी ही बातों-यादों की वजह से आज भी बचपन की नवरात्रि,जस की तस ज़हन में जिन्दा है।बचपन गाज़ीपुर कस्बे में बिता, छोटा-सा कस्बा,जहां २४ में से १४ घण्टे बत्ती नहीं रहती, लेकिन नवरात्रि के दिनों में आस रहती कि लाइट कम कटेगी। लखनऊ..जैसे शहर में जहां लाइट का कटना बड़ा ही अस्वभाविक लगता है वहीं गाज़ीपुर जैसी जगह पर लाइट का रहना...चकित करता है।

त्यौहार के दिन, त्यौहार की खुशी तो होती ही थी साथ ही इस बात पर भी मगन रहते कि आज लाइट नहीं जाएगी और जाएगी भी तो १-२ घण्टे में आ जाएगी।दशहरे के दिन, दिनभर नजरें पेड़ों-दीवारों और आसमान पर टिकी रहती...कि नीलकण्ठ दिख जाए...।इसी दौरान अगर बहन बोल देती कि उसने नीलकण्ठ देख लिया...तो बराबरी करने के लिए झूठा नीलकण्ठ मैं भी देख लेती और नहीं तो उसे हजार ताने दे डालती कि तुम मेरी सगी नहीं, सौतेली बहन हो..वरना अकेले नहीं देखती...और फिर शाम को लंका के मैदान जाकर...नौटंकी के राम-सीता,लक्ष्मण-हनुमान के लिए माला खरीदकर..उनके पैरों में चढ़ाते, आशीर्वाद लेते और फिर झोला भरकर मिट्टी के खिलौनों की खरीदते।

 तमाम कमियों के बावजूद...१० साल पहले के वो दिन आज भी एक सुखद एहसास कराते हैं,लेकिन पिछले साल की नवरात्रि में क्या किया था ये याद नहीं और ना तो इस बार ही कुछ ऐसा खास है जो याद बन सके। त्यौहारों के मकसद की जगह बाजार ने ले ली है..त्यौहार अब खुशी कम छुट्टी के बहाने ज्यादा बन गए हैं और अगर बाई चांस त्यौहार रविवार को हो तो वो...त्यौहार कम नुकसान ज्यादा लगता है। अब ना तो पण्डालों में वो पहले वाली रौनक रह गई है और ना ही रामलीला देखने में वो मज़ा।

इसे छोटे शहर की खासियत ही कहूंगी, जहां आप ५-६ घण्टे के भीतर लगभग दर्जन भर पण्डाल आराम से देख सकते हैं लेकिन बड़े शहर की बड़ी दूरियों में ये संभव नहीं...और नीलकंठ, अब बस दशहरे पर निबंध लिखने के वक्त ही याद आता है।
हर रोज़ सरोजनी नगर से हज़रतगंज की दूरी नापती हूं लेकिन किसी के चेहरे से ऐसा लगता ही नहीं है कि कोई त्यौहार है। कुछएक जगहों पर पण्डाल तो दिखते हैं लेकिन वो भी तैयारी कम और खानापूर्ति ज्यादा लगती है। कहीं न कहीं ये सबकुछ हमारे भीतर मर चुकी भावना का ही प्रमाण है।कुछएक दोस्तों से गाजीपुर की तैयारी के बारे में पूछा तो बड़े गर्व से उन्होंने बताया कि महुआबाग में फव्वारा लगेगा....फलां जगह ये होगा और वहां वो होगा...आज भी त्यौहारों को लेकर वो उतने ही उत्साहित लगे...जितने तब हम हुआ करते थे।

छोटे पर अक्सर बड़े शहरों के त्यौहार देखने का दिल किया करता था। समझ इतनी ही थी कि लगता था कि बड़े शहरों में सबकुछ भव्य होता होगा। लेकिन आज राजधानी में बैठकर कस्बे की याद कर रही हूं, जहां आज भी त्यौहार छुट्टी से ज्यादा खुश होने का, साथ होने का एक मौका है। 

10 comments:

P.N. Subramanian said...

सुन्दर लेखन. छोटे शहरों/कस्बों में आत्मीयता रमी रहती है. हर शक्श की अपनी एक पहचान होती है जो शहरों में खो सी जाती है. यह एक बड़ा अंतर है.
लोगों का लगाव हर उस त्यौहार से रहता है जिसमे मिलने मिलाने का अवसर मिलता है. एक अलग ही ख़ुशी का माहौल.

चंदन कुमार मिश्र said...

सही। सहमत हैं। छोटे शहरों या गाँवों में आज भी (पहले से तो कम ही) बच्चे खुश दिखते हैं और वह खुशी त्यौहार की ही होती है। खासकर मैं तो पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को याद कर रहा हूँ। बड़े शहरों में तो किसी को फ़ुरसत नहीं होती। छोटी जगहों में एक उत्साह दिखता है। …टोने-टोटके बहुत हद तक अभी भी हैं…

Atul Shrivastava said...

बेहतर लेखन।
सच कहा, बीते दस बीस वर्षों के दौरान मनाए त्‍यौहारों की यादें जेहन में ताजी रहती हैं पर पिछले वर्ष त्‍यौहार पर क्‍या किया यह याद नहीं, क्‍योंकि पिछले कुछ वर्षों से त्‍यौहार सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गए हैं।
बचपन में त्‍यौहारों का उत्‍साह अलग हुआ करता था, पर अब त्‍यौहार कब आ जाते हैं और कब चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता।
गांवों में तो फिर भी त्‍यौहारों पर एक माहौल देखने मिलता है लेकिन शहरों की चकाचौंध में त्‍यौहारों की असली मिठास गायब ही हो गई है।

Rahul Singh said...

शहर बदला, त्‍यौहार बदले, हम बदले. यही बदलाव पुराना खो जाने का खालीपन अहसास कराता है तो नया पाने का आस भी जगाता है.

ashish said...

गाजीपुर की याद दिला दी आपकी इस पोस्ट ने . भाई इस बार तो हम देख्नेगे लंका मैदान में रावण दहन .

A Journal of ASSR Human Development said...

हमारे शहर गाजीपुर का लंका मैदान का रावन दहन देखने लायक है परन्तु अफ़सोस आज पहली बार हम नहीं जा शकेगे लंका मैदान

A Journal of ASSR Human Development said...

हमारे शहर गाजीपुर का लंका मैदान का रावन दहन देखने लायक है परन्तु अफ़सोस आज पहली बार हम नहीं जा शकेगे लंका मैदान

JANSAMVAD said...

अच्छा आलेख
इस बार हम भी नहीं जा पायेगे लंका मैदान

Anonymous said...

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