Saturday, October 08, 2011

क्या नाम दूं उसे....?

उस दिन जब घर आयी..बहुत कन्फ्यूज थी..तय नहीं कर पा रही थी कि सही क्या है और गलत क्या..। सही और गलत का पैमाना ही तय नहीं कर पा रही थी...तो अच्छा-बुरा बता पाना तो बहुत दूर की बात....थी।
हज़रतगंज से आलमबाग़ तक आने के लिए अमूमन ऑटो का ही सहारा होता है..बसें भी हैं लेकिन उनकी फ्रिक्वेंसी इतनी कम है कि आपको कभी-कभी घंटेभर भी इंतेजार करना पड़ सकता है, ऐसे में ऑटो ही बेहतर विकल्प होते हैं. बमुश्किल ३ लोग पीछे बैठ पाते हैं और ड्राइवर की अडजेस्मेंट की बदौलत उसकी वाली सीट पर एक और...।
उस दिन भी रोज की तरह बापू भवन से ऑटो में बैठी...पूरे आधे घंटे बाद ये ऑटो मिला था...वो भी शायद लड़की होने के नाते....। ये बात हमेशा स्वीकार करती हूं कि कई पक्षों में लड़कियों को लड़की होने का फायदा मिलता है।
पीछे की सीट पर हम कुल चार लोग बैठे थे..मैं, दो लड़के और एक औरत....अपने चार बच्चों के साथ. जिसमें सबसे बड़ी लड़की की उम्र १० की रही होगी..या शायद उससे भी कम। सबसे छोटा लड़का गोद में था और बमुश्किल ६-७ महीने का होगा। नाक से स्लाइवा का प्रवाह, शरीर पर सफेद से काली बन चुकी एक बनियान और गले में एक काला धागा....देख के साफ पता चल रहा था कि महिनों से उसे नहलाया नहीं गया है....लेकिन फिर भी उसकी मां उसे छाती से चिपकाए हुई थी....और ये होना अस्वभाविक भी नहीं था....आखिर थी तो वो मां ही...।
दशहरे की भीड़ में हम करीब एक घंटे में चारबाग पहुंचे...जबकि रोज इसी दूरी को हम मात्र १५ मिनट में नाप लेते थे...लेकिन आज की देरी खल नहीं रही थी....रास्तेभर देवी प्रतिमाओं को देखकर दशहरा मेला न जा पाने का दुख थोड़ा कम होता मालूम पड़ रहा था, पर पूरे रास्ते एक डर साथ रहा कि कहीं उसके नाक का स्लाइवा (नेटा) मेरी चुन्नी में ना लग जाए... जिसे उसकी मां समय-समय पर अपने आंचल से साफ कर रही थी....पर नाक थी या पनारा कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। वैसे भी गरीब के बच्चों की नाक बहना उनके गरीब होने का कुछ वैसा ही प्रमाण है जैसा किसी अमीर के बच्चे के लिए हर रोज एक नई फरमाइश करना...।
काफी वक्त हो चुका था और उस महीनेभर के बच्चे का भूख लगना बेहद स्वभाविक था..बचपन से सुनती आई हूं कि बच्चे के बिना कहे ही मां को बच्चे की भूख का पता चल जाता है...और इससे कुछ जुदा नहीं हुआ...। उस औरत ने बिना कुछ सोचे-विचारे, कि कौन ऑटो में है और कौन नहीं..अपने आंचल को उसके सिर पर डाल दिया...और उसे अपना दूध पिलाने लगी। पहले लगा कि एक गंवार औरत ही ऐसी हरकत कर सकती है कि सार्वजनिक जगह पर खुद को इस तरह पेश करे। क्योंकि मेट्रो में जिन औरतों को देखा था वो अपने बच्चों को साथ लेकर चलती तो पूरी तैयारी के साथ...तो इस तरह की अप्रत्याशित हरकत मेरे अंदाजे से कोई जाहिल ही कर सकती थी....। ज्यादा बुरा इसलिए भी लग रहा था क्योंकि अबतक जो नजरें उसे हेयदृष्टि से देख रही थीं अचानक ही उनके भाव बदल गए थे..कुछ अपने मतलब का तलाशने में...कुछ देख लेने की चाह में... जैसे कोई रहस्य बस खुलने ही वाला हो। ऑटो वाले को तो खुद मैंने कई बार टोका कि भइया सामने देखकर चलाओ...पीछे क्या देख रहे हो...पर ये उसे भी पता था कि मैं जान रही हूं कि वो क्या देखना चाहता है...तभी एक झेंपने वाली हंसी के साथ उसने निगाहें फेर ली....।
जहां उस औरत की इस हरकत से मैं परेशान हुई जा रही थी, दूसरों को टोके जा रही थी वहीं...वो अब भी अपने बच्चे में ही व्यस्त थी...और फिर एक शर्माने वाली, लेकिन मासूम सी हंसी के साथ बोली..बाबू भूखाइल रहे...अब पी लेहन.. सुत जइहें....।
शायद मैं उसे उसकी इस हरकत के लिए टोकने के लिए ही मुड़ी थी लेकिन उसके इतना कहने के बाद...एक हंसी से ज्यादा कुछ कह नहीं पाई।
उसकी मजबूरी साफ थी...एक तो मां ऊपर से गरीब मां...। अपनी इज्जत संभाले या फिर अपने बच्चे का पेट पाले। ना तो वो दूध की बोतल खरीद सकती थी और ना ही बोतल के लिए दूध....। तो करे भी तो क्या....? अब तक जो मेरे लिए गंवार थी अब वो सिर्फ एक मां थी...जिसके लिए हर खुशी का मतलब उसके बच्चों की संतुष्टि से शुरू होकर उन्ही पर खत्म हो जाता है...। मां के नजरिये से देखूं तो उसे एक जिम्मेदार मां मानती हूं पर समाज की नजर से...एक बेशर्म से ज्यदा कुछ नहीं...।
जब ये लेख शुरू किया तभी कहा था कि उलझन में हूं...फैसला नहीं ले पा रही... तो अब आप ही तय कीजिए उस औरत के लिए कौन सी श्रेणी ठीक रहेगी...... 

4 comments:

Atul Shrivastava said...

मां।
लोकलाज और शर्महया को यदि तवज्‍जो दे तो फिर आप और हम या फिर कोई इंसान इस दुनिया में ही कैसे आ पाएंगे....
क्‍या कोई निकले हुए पेट के साथ महीनों घूम सकता है.... सिर्फ वहीं कर सकती है,, जिसमें मां का उत्‍साह हो, फिर मां कैसे अपने बच्‍चे से ज्‍यादा लोकलाज और शर्म को तवज्‍जो दे।
ये मां उन से तो बेहतर ही है जो फैशन में कम कपडे पहनते हैं.... सब कुछ होते हुए भी अपना पूरा बदन नुमाईश करती रहती हैं.... इस महिला ने तो अपने बेटे की भूख शांत करने के लिए ऐसा किया.... वो सिर्फ मां है... जिम्‍मेदार मां है..... यदि समाज की नजर में इसे बेशर्म कहा गया तो फिर असली बेशर्म तो समाज ही कहा जाएगा.....
बहरहाल, आप अपनी उलझन को शांत करें...
आभार....

JANSAMVAD said...

नारी तेरी यही कहानी
आँचल में दूध आँखों में पानी

चंदन कुमार मिश्र said...

इसमें भ्रम का कोई सवाल ही नहीं है। वह एक माँ थी उस वक्त। बेशर्म कहने दीजिए, जिसको कहना है…

Rahul Singh said...

मां की श्रेणी कौन तय करे, हां चाहें तो अपनी श्रेणी के बारे में जरूर सोच सकते हैं.

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