Sunday, February 12, 2012

आज भी आदम की बेटी हंटरों की ज़द में कैद है

21वीं सदी की बातें की जा रही हैं, वैज्ञानि‍क युग आ गया है, चीजें बदल रही हैं उसके साथ उनके मायने भी।  लेकि‍न क्‍या वाकई समाज बदल गया है...और अगर हां, तो कि‍न संदर्भेा  में..सकरात्‍मकता में या नकरात्‍मक रूप से। शायद दोनों ही रूपों में ‘’देश’ ने तरक्‍की की है लेकि‍न समाज’ ने....? यहां तरक्‍की नकरात्‍मक ही है...या यूं कहें, जहां 10  साल पहले थे वहीं आज भी हैं...और लगातार पीछे ही होते जा रहे हैं... ।
समाज की बात बहुत बड़े स्‍तर की है..सिर्फ महि‍ला वर्ग की बात करें तो उसके लि‍ए तो समाज ने जैसे लक्ष्‍मण रेखा खींच रखी है कि‍ इससे आगे प्रवेश वर्जि‍त है.. और आज की औरत को भी बहुत अच्‍छे से पता है कि‍ उसके लि‍ए कोई राम नहीं आने वाला है, तो वो भी उन सारी बातों को स्‍वीकार कर चुप्‍पी साधे हुए है। स्‍त्री की दशा पर प्रवचन देना हो, समाज की पॉजि‍टि‍वि‍टी दि‍खानी हो तो कुछ एक कामयाब औरतें के उदाहरण हैं लेकि‍न मेजोरि‍टी तो आज भी उसी वर्ग की है जो लक्ष्‍मण रेखा के अंदर है...। और ऐसा नहीं है कि‍ ये औरतें आजाद होकर, बुलंदि‍या छूना नहीं चाहतीं या छू नहीं सकती, लेकि‍न मजबूर हैं। और इस मजबूरी का जाल इतना घना है कि‍ उसे तोड़ा नहीं जा सकता..और शायद टूट जाए तो समाज ही बि‍खर जाए...क्‍योंकि‍ कोई भी परि‍वर्तन,पुरानी चीजों के नष्‍ट होने के बाद ही आता है।
मजबूरी की बात करें तो बचपन से ही लड़की को ये सीखा दि‍या जाता है कि‍ देखो तुम यहां एक उम्र तक ही हो उसके बाद तुम्‍हें ससुराल जाना है। आप सबके घरों में भी, मजाक में ही या कोई संवेदना दि‍खाने के लि‍ए ऐसा कहा ही जाता होगा, वो भी उस उम्र में जबकि‍ उसकी सोच गुड़ि‍या की शादी से आगे बढ़ी नहीं होती है..हालांकि ये भी सोचने वाली बात ही है कि‍ एक बच्‍ची ही हमेशा गु‍ड़ि‍या की शादी का खेल क्‍यों खेलती है...? मि‍टटी की गुड़ि‍या की जगह भले बार्बी ने ले ली हो लेकि‍न उसकी भी शादी ही की जाती है...।
पूर्वांचल से हूं और पूर्वांचल कि‍स्‍से-कहानि‍यों के मामले में बड़ा व्‍यापक है..बचपन से शादी को लेकर एक कि‍स्‍सा सुना, ‘ए धीया बाछी, करेजवे क टाटी...धीया जि‍हें ससुरे,  करेजा मोरा फाटी’। मतलब कि‍ मेरी प्‍यारी बेटी जब ससुराल जाएगी तो मुझे बहुत दुख होगा...। यहां प्‍यार तो है लेकि‍न बेटी के ससुराल जाने के दुख की वजह से उपजा प्‍यार। बचपन से ही लड़की को कुछ ऐसा बना देते हैं कि‍, देखो तुम घर की इज्‍जत हो जो तुम करोगी उसी से घर की पहचान होगी...लेकि‍न भेदभाव यहां भी है। ये बात उसके ससुराल जाने के लि‍ए हासि‍ल की कई तथाकथि‍त तरक्‍की के लि‍ए होता है..यथा खाना बनाना सीख लो, वरना वहां जाकर बनाओगी क्‍या...इस तरह तो वहां तुम्‍हारा गुजर होने से रहा...घर संभालना सीख लो... वहां जाकर ताने सुनवाओगी क्‍या.., अच्‍छा और सबसे मजेदार की थेाड़ी हेल्‍थ बना लो..वरना बहुत परेशानी होगी... तरक्‍की का पैमाना ससुराल में सब मैनेज कर लेने से आंका जाता है। भले लड़की पढ़ने में ठीक हो, काम भी करती हो...कोई फर्क नहीं पड़ता..शादी तो करनी ही है और उसके लि‍ए ये सब भी आना जरूरी है। शादी की उम्र आते-आते और अपने आस-पास के माहौल को देखते-देखते लड़की खुद इतनी समझ बना लेती है कि‍ उसे दूसरे के घर जाना है और अपने सारे तथाकथि‍त सर्टि‍फि‍केट को प्रूफ करना है लेकि‍न फि‍र भी हर रोज उसे छेटी-छोटी बातों पर ससुराल का डर दि‍खाया जाता है..ि‍क नहीं आता वो नहीं आता क्‍या करोगी वहां जाकर...पहले से ही तय कर दि‍या जाता है कि‍ तुम्‍हें वहां जाकर इन कामों के दम पर ही अपनी पहचान बनानी है तो be perfect…..। और सबसे बुरा तो ये है कि‍ लड़की के बड़ा होते ही उसे शो पीस बना दि‍या जाता है... प्राइड एंड प्रि‍ज्‍युडि‍स नॉवेल में एलि‍जाबेथ की मां जैसा करती है वैसा हर जगह होता है....लड़की को कहते है जाओ एक बार मि‍ल लो, अगर ‘तुम उसे पसंद आ गई ‘ तो ही बात कुछ आगे बढ़ेगी...मतलब कि‍ अब आप ‘बि‍कने’ लायक माल है या नहीं ये भी एक अंजान आकर तय करता है। जि‍न घर वालों को अब तक आपका आपके क्‍लास मेट से बोलना भी पसंद नहीं होता वो खुद आपको डेट करने भेजते हैं, बेशक एक अंजान के साथ। हालांकि‍ लव मैरेज एक ऑप्‍शन है कि‍ लड़की बगावत करे.. लेकि‍न आप खुद सोचि‍ए एक मीि‍डल क्‍लास फैमि‍ली में जहां बचपन से संस्‍कार और मां-बाप को वरीयता देना सीखाया गया हो वहां ये कर पाना कि‍तना कठि‍न होगा...।
अभी कुछ दि‍नों पहले एक सर्वे पढ़ा था जि‍समें ये आंकड़े थे कि‍ लव मैरि‍ज में तलाक के चांस ज्‍यादा होते हैं..कारण ये भी था कि‍ लड़की अपना घर छोड़कर , बगावत करके आती है और वो कड़वाहट या टूटन उसके दपत्‍य को भी प्रभावि‍त करती है..। ऐसे में एक बात और भी है जो समाज के गंदे चेहरे और मां-बाप की परेशानी से जुड़ा हुआ है..समाज में लडकि‍यों को लेकर जो कुछ हो रहा है उससे कोई अंजान नहीं है, 6 बजे क्‍लास खत्‍म हो गई और 7 बजे तक बेटी घर नहीं आई तो घर वालों के माथे बल पड़ जाता है....ऐसे में जल्‍दी शादी कर देना भी उन्‍हें कि‍सी उपाय जैसा ही लगता है..लेकि‍न कन्‍ट्रास्‍ट यहां भी है कि लड़की जब तक अपने ससुराल नहीं चली जाती उसकी इज्‍ज्‍त की हि‍फाजत एक मि‍शन होता है.. कहते भी हैं कि‍ एक बार अपने घर चली जाओ तो जो मन आए करना हमें तो कम स कम चिंता नहीं होगी..।
मां-बाप के प्‍यार को कठघरे में नहीं खड़ा कर रही ये समाज के नि‍यम हैं जो कभी न कभी एक लड़की को झेलने ही पड़ते हैं...। ऐसे में ये कहना की समाज तरक्‍की कर रहा है कहां तक सच है..जबकि‍ आज भी एक लड़की हर वो चीज सहती है जो उसकी मां ने, दादी-नानी ने और उनके पुरखों ने झेल रखा है....। राज गोपाल सिंह का एक शेर है...
आज भी आदम की बेटी हंटरों की ज़द में कैद है                                                                       
हर गि‍लहरी के बदन पर धारि‍यां होंगी ज़रूर...





2 comments:

Tushar Banerjee said...

चीज़े वाकई बदल रही है भूमिका लेकिन तुम जो कह रही हो वो आज का सच है....सालों लगेंगे बदलाव आने में....

Atul Shrivastava said...

वक्‍त बदल रहा है......
वक्‍त को भी बदलने के लिए वक्‍त की जरूरत है....

बढिया विषय। विचारणीय।

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