Friday, March 02, 2012

पान सिंह तोमर....एक फि‍ल्‍म, जि‍से आप भूलना नहीं चाहेंगे..शायद भूल भी न पाएं..


 डकैत तो संसद में होते हैं मैं तो बागी हूं... यही वो एक डायलॉग था जि‍सने मुझे पान सिंह तोमर से जोड़ा। जि‍स दि‍न बीबीसी पर पान सिंह तोमर पर आर्टि‍कल पढ़ा था उसी दि‍न मन बना लि‍या था कि‍ चाहे जो हो फि‍ल्‍म जरूर देखनी है। बकायदा रीमाइन्‍डर सेट कि‍या था कि‍ भूल ना जाऊं, 2 मार्च रि‍लीजिंग डेट। कुछ बातें ऐसी थीं इस लेख में जो आपको बाकी फि‍ल्‍मों की रेलमरेल से अलग लगेंगी। http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/2012/02/120229_thigmanshu_pn.shtml ये वो लिंक है।
जहां एक कारण ये था वहीं दूसरा ये भी की कई मायनों में फि‍ल्‍म दस्‍यु सुंदरी बैंडि‍ट क्‍वीन से जुड़ी हुई थी। अत्‍याचार, भ्रष्‍टाचार और एक आम औरत के डकैत बनने की कहानी। और मेरे लि‍ए बैंडि‍ट क्‍वीन देखना एक जीत थी..दूसरे या तीसरे दर्जे में पढ़ते वक्‍त बैंडि‍ट क्‍वीन के बारे में सुना था, बड़ी तमन्‍ना थी देखने की। लेकि‍न वि‍वादास्‍पद वि‍षय होने के कारण कभी देख नहीं पाई और ये मनोकामना पूरी हुई 2011 में। पर पान सिंह के साथ वो गलती नहीं दुहराना चाहती थी।

पान सिंह तोमर एक समीक्षक नहीं दर्शक की नजर से...a
पान सिंह तोमर की व्‍याख्‍या अगर एक लाइन में करनी हो तो बस इतना ही कह सकते हैं कि‍, जि‍न्‍हें बैंडि‍ट क्‍वीन की सच्‍ची कहानी देखकर दुख, गुस्‍सा और समाज के खोखलेपन का एहसास हुआ, उन्‍हें ये फि‍ल्‍म एक बार फि‍र वहीं सोचने पर मजबूर कर देगी। खास बात ये है कि‍ बैंडि‍ट क्‍वीन में एक औरत के साथ बुरा हुआ था, जो शायद बहुत नया नहीं था हमारे समाज के लि‍ए। लेकि‍न पान सिंह को देखकर पुरूष प्रधानता भी महज भ्रम ही लगती है।फि‍ल्‍म एहसास कराती है कि‍ समाज कि‍सी का सगा नहीं है

पान सिंह तोमर कहानी है एक ऐसे आदमी की ‍जो परि‍स्‍थि‍ति‍यों के चलते बागी बन जाता है। गरीबी के चलते फौज में जाता है और भूख के लि‍ए खेल से जुड़ता है और इंसाफ के लि‍ए बागी बनता है। समाज की नाइंसाफी उसे रेस में दौड़ने के बजाय बीहड़ों में भागने को मजबूर कर देती है। पान सिंह के साथ जिंदगी दोनों रूप में जुड़ी है। फौजी और धावक का सकरात्‍मक पक्ष है तो डकैत का नकरात्‍मक पक्ष। लेकि‍न वि‍डम्‍बना ये है कि‍ उसे पहचान मि‍लती है इसी नकरात्‍मक रूप से। 
वो खुद भी कहता है कि‍ जब देश का नाम रोशन किया तो कि‍सी ने नहीं पूछा, कि‍सी पत्रकार ने सूरत नहीं दि‍खाई लेकि‍न बंदूक उठाते ही चर्चे हो गए हैं। अच्‍छा, मजेदार ये है कि‍ यहां भी सारा खेल पापी पेट का ही है। खुराक ज्‍यादा होने पर उसे सलाह दी जाती है कि खेल में चला जाए। क्‍योंकि‍ केवल वहीं खाने पर राशनिंग नहीं है। खेल में जाता है और कोच के कहने पर स्टीपलचेज़ में हिस्सा लेता है, रेकॉर्ड बनाता है और ओलिम्पिक में ‍भी हिस्सा लेता है। रि‍टायरमेंट के बाद सुख-चैन की ख्‍वाहि‍श रखता है पर भाइयों के चलते बागी बनने को मजबूर हो जाता है। इस मजबूरी से पहले बेबसी है। कलेक्‍टर से शि‍कायत, थानेदार के साथ के संवाद आपको उसी फूलन देवी की याद दि‍ला देंगे जो इंसाफ के रखवालों के पास जाकर ही सबसे अधि‍क असहाय दि‍खती है। बाप जब फूलन को लेने आता है तो उसे उन्‍हीं थानेदारों को सलाम ठोंकने और शुक्रि‍या कहने को बोलता है जो उसे नोंच नोंचकर रातभर खाए होते हैं। एक डकैत को लेकर कई तरह के मि‍थ को ये फि‍ल्‍म तोड़ती है।
ऐसा नहीं कह सकते कि‍ फि‍ल्‍म केवल गंभीरता लि‍ए हुए है। माही गि‍ल के साथ इरफान की पति‍-पत्‍नी वाली लड़ाई मजेदार है।  
फि‍ल्‍म का अंत सच में घर लौटते वक्‍त शर्म का एहसास कराता है और अगर गैरत हो तो शायद आंखें भी छलक जाएं। एक लि‍स्‍ट पर्दे पर आती है उन खि‍लाड़ि‍यों के नाम की जो अपने फील्‍ड के धुरंधंर थे। लेकि‍न हमारे समाज ने उनमें से कुछ को बागी बना दि‍या तो कुछ को भीखारी। पान सिंह भी उसी तथाकि‍थत महान भारत का तथाकथि‍त डकैत था, क्‍योंकि‍ वास्‍तव में वो डकैत नहीं हर तरफ से हारा हुआ एक बागी था।
रि‍यलि‍टी से जोड़ते कि‍रदार और लोकेशन...
लोकेशन के मामले में ति‍ग्‍मांशु ने कि‍ला फतह कि‍या है। चंबल की रि‍यल लोकेशन लाजवाब है। इमरान के लि‍ए बस इतना कि‍ वाकई वो अभि‍नय को जीते हैं। इमरान को लि‍ए जाने के पीछे ति‍ग्‍मांशु की ये बात सबकुछ बयां कर जाती है... इस फ़िल्म के लिए एक ऐसे हीरो की तलाश थी जो उन्हें अपनी तारीख से ज़्यादा कुछ दे सके और वाकई इरफान बेहतर शायद ये कि‍रदार कोई कर भी नहीं पाता। माही गि‍ल के लि‍ए करने को कुछ है ही नहीं लेकि‍न उनका होना इस गंभीर फि‍ल्‍म में कहीं न कहीं जरूरी भी है। इरफान और उनके बीच की हल्‍की-फुल्‍की नोंकझोंक ति‍पश में बौछारों जैसी लगती है।
कुछ यादगार सीन..
-पान सिंह का पुलि‍स के सामने इंसाफ मांगना..
-मेडल का फेंका जाना...
-बागी बनना...; पछताना
-अपने अफसर को खरी-खरी कहना, परि‍वार पर जुल्‍म

-फि‍ल्‍म का मार्मि‍क अंत
हालांकि‍ कहानी में कोई नयापन नहीं है, आमतौर पर फि‍ल्‍मी पर्दे पर सभी डकैतों की यही दास्‍तां दि‍खाई गई है लेकि‍न फि‍र भी दर्शक को पान सिंह के अगले कदम का इंतजार रहता है। ये शाद इसलि‍ए भी है क्‍योंकि‍ हम सब भी कहीं न कहीं खुद समाज के इस अन्‍याय के शि‍कार हैं और कहीं न कही एक बागी भी।
एक बेहतरीन फि‍ल्‍म है..पान सिंह तोमर, अगर सच सुनना और देखना पसंद हो तो जरूर देखें। 

1 comment:

Atul Shrivastava said...

बढिया जानकारी।
देखनी ही पडेगी यह फिल्‍म।

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