सिर्फ नाम ही काफी है..कुछ ऐसा ही है जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के साथ..। लोगों से बहुत सुना था और पढ़ा था उनके बारे में..कल पहली बार उनको सुनने का मौका मिला। कॉलेज के अवॉर्ड फंक्शन का सबसे अच्छा पक्ष यही था। मीडिया पर जमकर बोले..और अच्छा ये कि विद्वता का प्रदर्शन करने के लिए नहीं बल्कि समझाने और समझने के लिए बोले। अमूमन कॉलेज के अवॉर्ड फंक्शन में स्पीच देने वालों के आते ही स्टूडेंट रिक्वेस्ट करने लग जाते हैं कि यार ये जल्दी जाए..लेकिन काटजू ने बोलना शुरू किया तो हॉल का सन्नाटा तालियों की गूंज के साथ ही टूटा। शुरूआत में ही ये स्पष्ट कर दिया कि मैं मीडिया का जितना पक्षधर हूं उतना ही बड़ा आलोचक भी....। ऐतिहासिक दौर से शुरूआत करते हुए वर्तमान तक की बात की..। अपने वक्तव्य में काटजू ने कहा कि वर्तमान ट्रांजिक्शन पीरियड है, जहां कोई गरीब नहीं रहना चाहता, अपने-अपने स्तर पर हर कोई प्रयास कर रहा है कि आगे बढ़े..कुछ करे। जिसके चलते वैल्यूज़ बदल रहे हैं.. ट्रेंड बदल रहे हैं, समाज बदल रहा है..और जिसके लिए काफी हद तक हमारा मीडिया जिम्मेदार है। लेकिन आज का मीडिया नब्बे फीसदी मनोरंजन परोस रहा है, जबकि हमारे देश की असली समस्या गरीबी है..। आप खुद ही सोचिये जिस इंसान के पेट में दो दिन से खाना नहीं होगा वो रोटी के लिए सोचना पसंद करेगा या ये जानने के लिए इच्छुक होगा कि ऐश की बेटी का क्या नाम है.. अपने देश की मीडिया को सचिन का शतक न बनना समस्या लगता है, राहुल का सन्यास लेना प्राब्लम लगती है लेकिन गरीबी नहीं...भारत-पाकिस्तान के मैच को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जैसे कौरव-पांडव के बीच महाभारत हो..। ऐश्वर्या की प्रेग्नेंसी फ्रंट पेज की न्यूज है वो भी बोल्ड लैटर्स में..क्यों...? जबकि हमारे देश में शिक्षा से लेकर रोजगार तक की समस्या है..पोस्ट ग्रैजुएशन करने वाले चपरासी की नौकरी के लिए घूस देते हैं....लेकिन मीडिया इन्हें खबर मानता ही नहीं है क्योंकि न तो इससे सर्कुलेशन बढ़ता है और ना ही टीआरपी। आज फेयर इज फाउल एंड फाउल इज फेयर का वक्त हो गया है...आज का जर्नलिस्ट तो खुलेआम कहता है कि वो बिसनेसमैन है, जिसके लिए विज्ञापन पहले और खबर बाद में है..। बिहार दौरे का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि पेपर दिखता है, टीवी ब्रॉडकास्ट करता है कि बिहार तरक्की कर रहा है पर मेरे दौरे में तो मुझे वहां न तो कोई बदलाव नजर आया और ना ही विकास..अलबत्ता कुछ पत्रकारों ने ये जरूर कहा कि अगर वो सरकार के खिलाफ लिखते हैं तो या तो नौकरी से निकाल दिया जाता है या फिर उनका ट्रांसफर बंजर इलाकों में कर दिया जाता है..। अपने देश के 47 फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं...पर मीडिया को करीना की शादी की चिंता है..अगर यही मीडिया है तो, नि:संदेह मीडिया भटक गया है..मीडिया में आना एक जिम्मेदारी है..जिसे गंभीरता से निभाना ही एक पत्रकार का दायित्व होना चाहिए..। काटजू के इस पूरे वक्तव्य को सुनकर दीमाग में सबसे पहले केवल एक बात आई कि शायद जो कुछ पढ़ाया गया था उसे कोई तो है जो वास्तविक तौर पर मानता भी है..वरना जिस दिन जर्नलिस्म की क्लासेस खत्म हुईं ये सारे विचार उसी दिन छोड़ने को कह दिया गया..क्योंकि शायद सच्चाई इन आदर्शों से परे है..लेकिन कहीं न कहीं ये फिलॉसफी भी हमारी ही बनायी हुई है कि आदर्श पर चलकर कुछ नहीं मिलेगा..पर शायद हम कभी चले ही नहीं...बस मानकर बैठ गए..। पर जस्टिस काटजू को सुनकर अच्छा लगा कि कम से कम हमारे प्रेस की हेड अथॉर्टी तो कहीं न कहीं इन आदर्शों को सच मानती है..।
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4 comments:
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आप कहीं भी रहें, अपने काम के साथ आदर्शों से मेल-जोल वैसा असंभव नहीं होता, जैसी तस्वीर आमतौर पर दिखाई जाती है.
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