Tuesday, June 19, 2012

मुंबई के चॉल का छोटा प्रति‍रूप हैं दि‍ल्‍ली-नोएडा के पीजी....


रवि‍वार की सुबह करीब 7.15 - साढ़े सात बजे दूरदर्शन पर रंगोली का प्रसारण होता था....ऐसे-ऐसे गाने जो भले ही आज क्‍लास लगते हों पर सच्‍चाई यही है कि‍ उस वक्‍त बड़े ही बोझि‍ल और उबाऊ लगा करते थे। ऊपर से उनकी रंगहीनता भी फूटी आंख नहीं सुहाती थी। इंतजार होता था केवल अंत के दो गानों का...जो आमतौर पर कुछ नए हुआ करते थे..थोड़े भड़कीले और रंगीन भी...।

पर मां को उन पुराने गानों से खासा लगाव था, कुछ और देखे ना देखें रंगोली जरूर देखा करती थीं.. और हम भी झूठा आनंद उठाते हुए टीवी के सामने जमे रहते थे.. ताकि‍ पढ़ना न पड़े। बीच-बीच में मां से पूछते भी रहते थे कि‍ ये नौशाद कौन हैं..फलानें कौन हैं...ढ़ेकाने कौन हैं...। शायद उसी वक्‍त ये नाम पहली बार सुना था.. पेइंग गेस्‍ट...। 1957 में आई देवानंद-नूतन की बेहतरीन रोमांटि‍क फि‍ल्‍म..।

बहुत कम उम्र कह लीजि‍ए या अंग्रेजी से बैर की गेस्‍ट का तो मतलब मालूम था पर पेइंग का नहीं..। मां को पूछने पर पता चला कि ऐेसा गेस्‍ट जो पेमेंट करे..; शायद उन्‍होंने कुछ और भी समझाया था आसान शब्‍दों में पर याद नहीं...। उस वक्‍त जो भी मेहमान आता था मनाती थी कि‍ ये हमारा पेइंग गेस्‍ट ही हो...ताकि पेमेंट करके जाए..हालांकि‍ घर में अति‍थि‍ को देवता मानने और मनवाने की परंपरा थी पर बचपन में पेमेंट करने वाले गेस्‍ट का ही इंतजार होता था। आज जबकि‍ खुद बतौर पेइंग गेस्‍ट रह रही हूं तो मतलब समझ आ रहा है....।

दि‍ल्‍ली-नोएडा जैसे शहरों में पीजी में रहना शौक कम मजबूरी ज्‍यादा है... वरना कौन एक ही बाथरूम एक ही टॉयलेट चार-पांच अनजाने लोगों के साथ बांटना पसंद करेगा...। एक ही कि‍चन में कौन लाइन लगाकर खाना बनाने का इंतजार करेगा...कौन अपने टूथपेस्‍ट से लेकर शौच के बाद हाथ साफ करने वाले डेटॉल पर ताला लगाना पसंद करेगा...आदमी अठन्‍नी और खर्चा रुपइया के फलसफे ने पीजी को आज का लेटेस्‍ट ट्रेंड बना दि‍या है....रह रही हूं इसलि‍ए इसकी तुलना मुंबई के छोटे-मोटे चॉल से कर सकती हूं.....पर ये भी सच है कि घर से दूर रहकर आपको जहां आटे-दाल का भाव पता चलता है वहीं आपमें कुछ ऐसी आदतें भी वि‍कसि‍त हो जाती हैं जो शायद घरवाले जिंदगी भर सीखाते रहें पर बच्‍चा सीख नहीं पाता है.; अपना ख्‍याल करना...;जि‍म्‍मेदारी उठाना..,कि‍फायत करना। 

12 comments:

Rahul Singh said...

जिंदगी की पाठशाला, सीखने की लगन रहे तो रोज नया पाठ ले कर आती है.

रविकर said...

शुभकामनाएं |
सुन्दर प्रस्तुति ||

राजेश सिंह said...

सचमुच जिन्दगी के कुछ पाठ उम्र और अनुभव ही सिखाते है इन्हें किसी भी पुस्तक,स्कूल ,कॉलेज और कोचिंग सेंटर में नहीं सिखाया जा सकता

amit kumar srivastava said...

बिंदास पर सच

दीपक बाबा said...

आपको याद होगा, दूरदर्शन पर रविवार की दोपहर एक सीरियल भी आता था, पेइंग गेस्ट....
कुछ कुछ याद है अभी.

बढिया पोस्ट के लिए साधुवाद.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

सुन्दर संस्मरण है. लिखती रहें इसी तरह.

डॉ .अनुराग said...

गोया पी .जी से जब आप बाहर निकलते है तो एक गाना आप को मुंह जबानी याद हो जाता है "आ ज़माने आ ,आजमाने आ "
झकास कन्फेशन !

अजित गुप्ता का कोना said...

पेइंग गेस्‍ट का दर्द समझ आ रहा है।

राजेंद्र अवस्थी. said...

आपकी इस रचना को पढ़ कर मेरी जानकारी मे इजाफा हुआ और ये कहानी मैने अपनी बेटी को भी पढ़वाई.....क्यो कि अब शायद उसको भी पेइंगगेस्ट बनना पड़ेगा...अकेले रहने पर आत्मनिर्भरता तो बढ़ती ही है साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ता जाता है...मै बहुत ही सौभाग्यशाली हूँ जो अनूप शुक्ला जी की चिट्ठा चर्चा के माध्यम से आपके ब्लॉग का पता पाया।

राजेन्द्र अवस्थी said...

आपने यादों के साथ जीवन मे आते उतार चढ़ावों को और विकसित होती भावनाओं को प्रस्तुत कर के मेरे अनुभव को प्रखरता प्रदान की है......इसके लिये मै आपको अपना आभार प्रकट करता हूँ.....मै स्वयं को बहुत ही सौभाग्यशाली मानता हूँ जो आपके ब्लॉग का पता अनूप शुक्ला जी की चिट्ठा चर्चा मे पाया...मेरी बेटी को भी ये अवसर मिला है कि, वो पेइंग गेस्ट बने और मुझे खुशी है कि समय पर आपका लेख पढ़ने को मिला। आपका बहुत शुक्रिया।

Anonymous said...

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PD said...

कई दोस्तों के छोटे भाई-बहन जब नौकरी-पढ़ाई के लिए बाहर निकलते हैं और संयोग से मेरे शहर में आ जाते हैं तो उनके नखरे(जी, आज मुझे वे नखरे दिखाई देते हैं, जो कभी हम खुद किया करते थे) महीने भर उठाते हैं.. फिर धीरे-धीरे छोड़ देता हूँ, आगे का पाठ तो जिंदगी सीखा ही देती है उन्हें..

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