Monday, August 11, 2014

सबकुछ है पर वो नहीं...जो तुम दोनों से था


गर्मियों की छुटिटयां हुईं नहीं कि मैं और दीदी फ़टाफट से अपने अच्छे कपड़ों की तह लगाना शुरु कर देते थे. बाल लंबे थे तो तरह-तरह के साटिन के रिबन, हेयरबैंड और चिटपिट वाली क्लिप जमा करना शुरु कर देते थे. कानपुर हमारा तय डेस्टिनेशन हुआ करता था, कानुपर के लिए कभी ट्रेन से सफ़र नहीं किया...गाजीपुर रोडवेज की बस पर सवार हो जाते थे और अगले दिन भोर में कानपुर पहुंच जाते थे. जहां मामा, दो मौसियां और बूढी पर जवान दिखने वाली नानी हमारा इंतज़ार करती थी.

कानुपर के लिए घर से निकलने के पहले क्षण से लेकर वहां गुज़ारे अंतिम सेकंड तक दिल खुश ही रहता था. रास्ते में सुल्तानपुर पड़ता तो मम्मी हमारे लिए कोल्ड ड्रिंक और कुछ खाने को ले आती...उस कोल्ड ड्रिक का स्वाद अब कभी नहीं मिलता...बस जब लखनउ पहुंचती तो बन-ब्रेड...तीन साल रही पर वैसा बन-ब्रेड कभी नहीं खाया.

कभी-कभी मम्मी को आने में देर हो जाती और ड्राइवर आ जाता तो हम दोनों बहन डर जाते, कि हमारी मम्मी छूट जाएगी, हम कैसे रहेंगे.दीदी समझदार थी तो ड्राइवर को बोल आती कि हमारी मम्मी नीचे हैं, अभी मत चलाओ तो ड्राइवर रोक देता, हाॅर्न बजाता. मम्मी के आते ही हमारी सांस वापस आ जाती. मैं हमेशा खिड़की की तरफ बैठने के लिए लड़ती और मम्मी, दीदी को बोलती तुम बड़ी हो न...फिर धीरे से उसके कान में कहती कि वो थोड़ी देर में सो जाएगी तो तुम वहां बैठ जाना. ऐसा ही होता भी. पर अगर बीच रात मेरी नींद खुल जाती तो वहीं लड़ाई शुरु. मेरे लिए क्या बस क्या घर...

उन्नाव दाखि़ल होते ही चमड़े की दुर्गंध बस में भर जाती , पर जब मम्मी कहती कि जूते पहन लो अब बस आने ही वाले हैं तो वो बदबू भी सुगंध लगती...सब छू मंतर हो जाता. अब कोई रोक-टोक नहीं है, न पैसे को लेकर न समय को लेकर और न कम उम्र को लेकर....पर अब कानपुर नहीं जा पाती...जाती भी हूं तो रास्ता वीरान लगता है...ननिहाल का प्यार वैसा ही है...पर अब तुम दोनों नहीं हो...और तुम्हारे बिना सबकुछ है पर वो नहीं...जो तुम दोनों के होेने से था.

3 comments:

Neeraj said...

Nice Neha well done keep it up .your blog is real and emotional as well as heart touching like stories of Munshi Premchand. You are talented and inspired by great writer because u also belonged locality of great Munshi ji. Keep it up
Thanks. Neeraj

Anonymous said...

पता नहीं तुम्हें आइंदा से ऐसा लिखने से मना करूं या कहूं कि खूब लिखो। बेहद भावुक कर देने वाला।
वे दोनों थी ही ऐसी। हमेशा जीवंत। तुम्हारे शब्दों में मैं मामी की मुस्कान को याद कर रहा था। किस तरह वह मिलते ही गले लगा लेती। फर्राटे के साथ कुछ अंग्रेजी में बोलतीं। अब याद नहीं है क्या। लेकिन उसमें खूब स्नेह होता।
वे हमारी स्मृतियों में हमेशा रहेंगी। जीवंत।

-धीरेंद्र राय, इंदौर

Sadhna said...

aaj bahut saal bad ye padh kar di aur aunty ka chehra aankho ke saamne aa gaya... u r the best gift to this world aunty could give before going... love u bhumi...

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