घर से निकलती अकेली हूं, पर सड़क पर कदम रखते ही न जाने कितनों का साथ मिल जाता है. आॅटो में बैठने से लेकर, मेट्रो और फिर आॅफिस....कहीं भी अकेलापन नहीं रहता. तमाम तरह के लोग आस-पास मौजूद होते हैं...कोई फोन पर बाॅस को अपनी ग़लत लोकेशन बता रहा होता है, कोई रिश्तेदारों को फोन करके आज का 'काम' पूरा कर रहा होता है तो कोई कुछ....
पर चारों ओर से घिरे होने के बावजूद हर रोज़ कोई एक ही कहानी आपके साथ जुड़ती है. ख़ासकर मेट्रो में. कोई एक ही शख़्स या समूह होता है, जिसे आप पूरे रास्ते फाॅलो करते हैं. आज एक ऐसा ही परिवार मिल गया.
औरत सीट पर बैठी हुई थी. गोद में 6 महीने का एक बच्चा था और उससे लिपटकर ही दूसरा, दो साल का लड़का खिड़की से बाहर देखने में व्यस्त था. गोद वाले बच्चे को वाकई काजल की कोठरी से निकालकर लाया गया था. उसके माथे पर लगा नज़र का टीका पूरे चेहरे पर, उसके नाक से बहते तरल के साथ मिलकर क्रीम बन चुका था. बड़ा बच्चा बार-बार अपनी मां के कान पर पीं-पीं बोलता और मां चिल्लाती. एकबार उसने थोड़ा ज़ोर से ही चिल्ला दिया. बच्चा रोया नहीं, पर नाटक करके, नीचे वाले होंठों को सिकोड़कर जताने लगा की उसे ये पसंद नहीं आया.
मां परेशान हुए जा रही थी...पिता सामने की ओर मुंह किए खड़ा था, वो बार-बार उसकी बुशर्ट खींचती की इन दो बच्चों में से किसी एक को देख लो और वो हर बार भौंहे सिकोड़कर उसे मना कर देता...
पर उसके चेहरे पर सोच की लकीरें इतनी गहरी थीं कि मानों भाग्य ने उसे जन्म से ही त्रिपुट लगाकर भेजा है...बच्चे को देखकर मुस्कुराई तो वो शरमा गया, मानो किसी ने उसकी शैतानी पकड़ ली. पर मेरी मुस्कान उसके लिए शायद कोई उपहार थी, उसने अपनी मां से कहा, देख उ दीदीया हंसत बिया...(देखो वो दीदी हंस रही है). मां ने भी एक फीकी मुस्कान मेरी ओर दी और दोबारा से अपने पति की ओर देखने लगी...
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