Tuesday, March 17, 2015

#हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमीः 2

उसके चेहरे के बदलते हाव-भाव देख रही थी. उसके हाथें में सोनी-एक्सपीरिया था. बड़ा वाला. कान में हेडफोन, लाल तारों वाला और एक बैक-बैग. जिसे उसने अपने पैरों के बीच में खड़ा कर रखा था. 

मेट्रो में कौन सवार हो रहा है, कौन उतर रहा है, कितनी भीड़ है, कौन छींक रहा है, कौन खांस रहा है...उसे कुछ भी मालूम नहीं चल रहा था. वो अपने में मस्त था. पर उसके चेहरे के हाव-भाव और हाथों की तेज़ी लगातार...पल-पल बदल रही थी.

सब-वे सर्फर खेल रहा था. सोने के सिक्के तो कुछ यूं बटोर रहा था जैसे वो असली हों. सोने के सिक्के छूट जाते तो पछतावा झलक जाता...मिल जाते तो...

आउट होने पर बड़ा दुखी हुआ, जैसे अलीबाबा ने जो खज़ाने का दरवाज़ा खोला था, वो उसके देखते-देखते बंद हो गया. 

एक और बात हुई....होती रोज़ होगी मैंने आज देखी.

मेट्रो में लोग दूसरे के पेपर को पढ़ने में खासा रूचि दिखाते हैं...और अचानक से अगर पन्ना बदल जाता है तो नाराज़गी भी दिखाते हैं....कि मैं तो अभी उसी आर्टिकल पर था, पलट क्यों दिया. जैसे पेपर उन्हीं का हो.
वैसे मेट्रो काॅर्पोरेशन चाहे तो किसी समाचार पत्र से कुछ ऐसा अनुबंध कर सकती है...कि मेट्रो में खबरों के डिस्प्ले की कुछ व्यवस्था हो जाए...

1 comment:

anurag said...

#बतकुचनी आज भी आप वो देख सकती हैं जिनका दूसरों के लिए कोई मोल नहीं। अपनी इस आदत को बनाएं रखिए...शुभकामनाएं

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